Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।13.35।।

 

 

क्षेत्र-शरीर; क्षेत्रज्ञयोः-शरीर के ज्ञाता; एवम्-इस प्रकार; अन्तरम्-अन्तर को; ज्ञानचक्षुषा-ज्ञान की दृष्टि से; भूत-जीवित प्राणी; प्रकृति-प्राकृतिक शक्ति; मोक्षम्-मोक्ष को, प्राकृत शक्ति से मुक्ति; च-और; ये-जो; विदुः-जानते हैं; यान्ति–प्राप्त होते हैं; ते–वे; परम-परम लक्ष्य।

 

 

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात जो लोग ज्ञान चक्षुओं के द्वारा शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के अन्तर और प्राकृतिक शक्ति के बन्धनों से मुक्त होने की विधि जान लेते हैं, वे परम लक्ष्य अर्थात परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।॥13.35॥

(क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है)

 

 [ज्ञानमार्ग विवेक से ही आरम्भ होता है और वास्तविक विवेक (बोध) में ही समाप्त होता है। वास्तविक विवेक होने पर प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वतःसिद्ध परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है – इसी बात को यहाँ बताया गया है।] ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’ – सत्असत् , नित्य-अनित्य , क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अलग-अलग जानने का नाम ज्ञानचक्षु (विवेक) है। यह क्षेत्र विकारी है , कभी एकरूप नहीं रहता। यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं है जिसमें यह स्थिर रहता हो परन्तु इस क्षेत्र में रहने वाला , इसको जानने वाला क्षेत्रज्ञ सदा एकरूप रहता है। क्षेत्रज्ञ में परिवर्तन न हुआ है , न होगा और न होना सम्भव ही है। इस तरह जानना , अनुभव करना ही ज्ञानचक्षु से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग को जानना है। ‘भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्’ – वास्तविक विवेक अर्थात् बोध होने पर भूत और प्रकृति से अर्थात् प्रकृति के कार्यमात्र से तथा प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर अर्थात् प्रकृति से अपने अलगाव का ठीक अनुभव होने पर साधक परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं। भगवान ने पहले अव्यक्त की उपासना करने वालों को अपनी प्राप्ति बतायी थी – ‘ते प्राप्नुवन्ति’ मामेव (12। 4)? उसी बातको इस अध्यायके अठारहवें श्लोकमें मद्भावायोपपद्यते पदसे? तेईसवें श्लोकमें न स भूयोऽभिजायते पदों से और यहाँ ‘यान्ति ते परम्’ पदों से कहा है। ज्ञानमार्ग में देहाभिमान ही प्रधान बाधा है। इस बाधा को दूर करने के लिये भगवान ने  इसी अध्याय के आरम्भ में ‘इदं शरीरम्’ पदों से शरीर(क्षेत्र) से अपनी (क्षेत्रज्ञ की) पृथकता का अनुभव करने के लिये कहा और दूसरे श्लोक में ‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम् ‘ पद से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को वास्तविक ज्ञान कहा , फिर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पृथकता का कई तरह से वर्णन किया। अब उसी विषय का उपसंहार करते हुए भगवान अन्त में कहते हैं कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की पृथकता को ठीक-ठीक जान लेने से क्षेत्र के साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। क्षेत्रज्ञ ने ही परमात्मा से विमुख होकर परमात्मा से भिन्नता मानी है और क्षेत्र के सम्मुख होकर क्षेत्र से एकता मानी है। इसलिये परमात्मा से एकता और क्षेत्र से सर्वथा भिन्नता – दोनों बातों को कहना आवश्यक हो गया। अतः भगवान ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि’ पदों से क्षेत्रज्ञ की परमात्मा से एकता बतायी और यहाँ क्षेत्र की समष्टि संसार से एकता बता रहे हैं। दोनों का तात्पर्य क्षेत्रज्ञ और परमात्मा की अभिन्नता बताने में ही है। जैसे किसी मकान में चारों ओर अँधेरा है। कोई कह देता है कि मकान में प्रेत रहते हैं तो उसमें प्रेत दिखने लग जाते हैं अर्थात् उसमें प्रेत होने का वहम हो जाता है परन्तु किसी साहसी पुरुष के द्वारा मकान के भीतर जाकर प्रवेश कर देने से अँधेरा और प्रेत – दोनों ही मिट जाते हैं। अँधेरे में चलते समय मनुष्य धीरे-धीरे चलता है कि कहीं ठोकर न लग जाय , कहीं गड्ढा न आ जाय। उसको गिरने का और साथ ही बिच्छू , साँप , चोर आदि का भय भी लगा रहता है परन्तु प्रकाश होते ही ये सब भय मिट जाते हैं। ऐसे ही सर्वत्र परिपूर्ण प्रकाशस्वरूप परमात्मा से विमुख होने पर अन्धकारस्वरूप संसार की स्वतन्त्र सत्ता सर्वत्र दिखने लग जाती है और तरह-तरह के भय सताने लग जाते हैं परन्तु वास्तविक बोध होने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती और सब भय मिट जाते हैं। एक प्रकाशस्वरूप परमात्मा ही शेष रह जाता है। अँधेरे को मिटाने के लिये तो प्रकाश को लाना पड़ता है । परमात्मा को कहीं से लाना नहीं पड़ता। वह तो सब देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि में ज्यों का त्यों परिपूर्ण है। इसलिये संसार से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर उसका अनुभव अपने आप हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवान्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक 13वाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।13।।

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥

 

 

 

 

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