Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

35 – 46  भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना

 

 

Bhagwad gita Chapter 11 in hindiकस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।

अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌ ॥11.37।।

 

कस्मात्-क्यों; च-और; ते-आपको; ननमेरन्-क्या उन्हें नमस्कार नहीं करना चाहिए; महात्मन – महापुरुष; गरीयसे-जो श्रेष्ठ हैं; ब्रह्मणः-ब्रह्मा की अपेक्षाः अपि – भी , यद्यपि; आदिकर्त्रे-आदि कर्ता को; अनंत-असीम; देवेश – देवताओं के स्वामी ; जगन्निवास -जगत का आश्रय; त्वम्-आप हैं; अक्षर्-अविनाशी; सत् असत्-व्यक्त एवं अव्यक्त; तत्-वहाँ; परम्-परे; यत-जो ना करे।

 

हे सर्वश्रेष्ठ! आप ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ और उनके भी आदि कर्ता हैं फिर वह आपको नमस्कार क्यों न करें? हे अनंत !  हे देवेश ! हे जगन्निवास !  आप सभी कारणों के कारण , अक्षर स्वरूप अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हैं। आप सत् भी हैं, असत् भी हैं, और सत्-असत् से परे भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं ॥11.37॥

 

(‘कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ‘ – आदिरूप से प्रकट होने वाले महान स्वरूप आपको (पूर्वोक्त सिद्धगण ) नमस्कार क्यों न करें ? नमस्कार दो को किया जाता है – (1) जिनसे मनुष्य को शिक्षा मिलती है , प्रकाश मिलता है – ऐसे आचार्य , गुरुजन आदि को नमस्कार किया जाता है और (2) जिनसे हमारा जन्म हुआ है , उन माता-पिता को तथा आयु , विद्या आदि में अपने से बड़े पुरुषों को नमस्कार किया जाता है। अर्जुन कहते हैं कि आप गुरुओं के भी गुरु हैं – गरीयसे (टिप्पणी प0 600.1) और आप सृष्टि की रचना करने वाले पितामह ब्रह्माजी को भी उत्पन्न करने वाले हैं – ‘ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।’ अतः सिद्ध महापुरुष आपको नमस्कार करें यह उचित ही है। ‘अनन्त ‘ – आपको देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि किसी की भी दृष्टि से देखें आपका अन्त नहीं आता। तात्पर्य है कि आपको देश की दृष्टि से देखें तो आपका कहाँ से आरम्भ हुआ है और कहाँ जाकर अन्त होगा ? ऐसा है ही नहीं। काल की दृष्टि से देखा जाय तो आप कब से हैं और कब तक रहेंगे ? इसका कोई अन्त नहीं है। वस्तु , व्यक्ति आदि की दृष्टि से देखें तो आप वस्तु , व्यक्ति आदि कितने रूपों में हैं – इसका कोई आदि और अन्त नहीं है। सब दृष्टियों से आप अनन्त ही अनन्त हैं। बुद्धि आदि कोई भी दृष्टि आपको देखने जाती है तो वह दृष्टि खत्म हो जाती है पर आपका अन्त नहीं जाता। इसलिये सब तरफ से आप सीमारहित हैं , अपार है , अगाध हैं। देवेश  इन्द्र , वरुण आदि अनेक देवता हैं जिनका शास्त्रोंमें वर्णन आता है। उन सब देवताओं के आप मालिक हैं , नियन्ता हैं , शासक हैं। इसलिये आप देवेश हैं। ‘जगन्निवास ‘ – अनन्त सृष्टियाँ आपके किसी अंश में विस्तृत रूप से निवास कर रही हैं तो भी आपका वह अंश पूरा नहीं होता बल्कि खाली ही रहता है। ऐसे आप असीम जगन्निवास हैं। ‘त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ‘ – आप अक्षरस्वरूप हैं (टिप्पणी प0 600.2)। जिसकी स्वतःसिद्ध स्वतन्त्र सत्ता है वह सत् भी आप हैं और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है बल्कि सत के आश्रित ही जिसकी सत्ता प्रतीत होती है वह असत् भी आप ही हैं। जो सत् और असत् – दोनों से विलक्षण है , जिसका किसी तरह से निर्वचन नहीं हो सकता , मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ आदि किसी से भी जिसकी कल्पना नहीं कर सकते अर्थात् जो सम्पूर्ण कल्पनाओं से सर्वथा अतीत है वह भी आप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि आपसे बढ़कर दूसरा कोई है ही नहीं , हो सकता नहीं और होना सम्भव भी नहीं — ऐसे आपको नमस्कार करना उचित ही है – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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