सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥2.11॥
श्रीभगवान् उवाच-परमप्रभु ने कहा; अशोच्यान्–जो शोक के पात्र नहीं हैं; अन्वशोच:-शोक करते हो; त्वम्-तुम; प्रज्ञावादान्-बुद्धिमता के वचन; च-भी; भाष से-कहते हो; गता असून-मरे हुए; अगता असून-जीवित; च-भी; न कभी नहीं; अनुशोचन्ति-शोक करते हैं; पण्डिताः-बुद्धिमान लोग।
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥२.11॥
मनुष्य को शोक तब होता है जब वह संसार के प्राणी-पदार्थों में दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं । ये हमारे वर्ण के हैं और ये हमारे वर्ण के नहीं हैं । ये हमारे आश्रम के हैं और ये हमारे आश्रम के नहीं हैं । ये हमारे पक्ष के हैं और ये हमारे पक्ष के नहीं हैं। जो हमारे होते हैं उनमें ममता , कामना , प्रियता , आसक्ति हो जाती है। इन ममता , कामना आदि से ही शोक , चिन्ता , भय , उद्वेग हलचल संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष अनर्थ नहीं है जो ममता कामना आदिसे पैदा न होता हो यह सिद्धान्त है। गीता में सबसे पहले धृतराष्ट्र ने कहा कि मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया ? यद्यपि पाण्डव धृतराष्ट्र को अपने पिता से भी अधिक आदरदृष्टि से देखते थे तथापि धृतराष्ट्र के मन में अपने पुत्रों के प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रों में और पाण्डवों में भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं। जो ममता धृतराष्ट्र में थी वही ममता अर्जुन में भी पैदा हुई परन्तु अर्जुन की वह ममता धृतराष्ट्र की ममता के समान नहीं थी। अर्जुन में धृतराष्ट्र की तरह पक्षपात नहीं था । अतः वे सभी को स्वजन कहते हैं ‘दृष्ट्वेमं स्वजनम्’ (1। 28) और दुर्योधन आदि को भी स्वजन कहते हैं – स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव (1। 37)। तात्पर्य है कि अर्जुन की सम्पूर्ण कुरुवंशियों में ममता थी और उस ममता के कारण ही उनके मरने की आशंका से अर्जुन को शोक हो रहा था। इस शोक को मिटाने के लिये भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया है जो इस 11वें श्लोक से आरम्भ होता है। इसके अन्त में भगवान इसी शोक को अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर – ‘मा शुचः’ (18। 66)। कारण कि संसार का आश्रय लेने से ही शोक होता है और अनन्यभाव से मेरा आश्रय लेने से तेरे शोक , चिन्ता आदि सब मिट जायँगे। ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’ – संसारमात्र में दो चीजें हैं ‘सत्’ और ‘असत्’ , शरीरी और शरीर। इन दोनों में शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशी का कभी विनाश नहीं होता । इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशी का विनाश होता ही है । वह एक क्षण भी स्थायीरूप से नहीं रहता इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरी को लेकर बन सकता है और न शरीरों को लेकर ही बन सकता है। शोक के होने में तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है। मनुष्य के सामने जन्मना-मरना , लाभ-हानि आदि के रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है वह प्रारब्ध का अर्थात् अपने किये हुए कर्मों का ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर शोक करना , सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये चाहे प्रतिकूल आये उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदि में और अन्त में नहीं होती वह बीच में एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे और मिटती है तो स्थायी कैसे ऐसी ? प्रतिक्षण मिटने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर हर्ष-शोक करना , सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है। ‘प्रज्ञावादांश्च भाषसे’ – एक तरफ तो तू पण्डिताई की बातें बघार रहा है और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तव में तू पण्डित नहीं है क्योंकि जो पण्डित होते हैं वे किसी के लिये भी कभी शोक नहीं करते। कुल का नाश होने से कुलधर्म नष्ट हो जायगा। धर्म के नष्ट होने से स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियों को और उनके कुल को नरकों में ले जाने वाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलने से उनके पितरों का भी पतन हो जायगा ऐसी तेरी पण्डिताई की बातों से भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीर स्वयं अविनाशी न होता तो कुलघाती और कुल के नरकों में जाने का भय नहीं होता , पितरों का पतन होने की चिन्ता नहीं होती। अगर तुझे कुल की और पितरों की चिन्ता होती है उनका पतन होनेका भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और उसमें रहने वाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरों के नाश को लेकर तेरा शोक करना अनुचित है। ‘गतासूनगतासूंश्च’ – सबके पिण्ड-प्राण का वियोग अवश्यम्भावी है। उनमें से किसी के पिण्डप्राण का वियोग हो गया है और किसी का होने वाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। तुमने जो शोक किया है यह तुम्हारी गलती है। जो मर गये हैं उनके लिये शोक करना तो महान गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियों के लिये शोक करने से उन प्राणियों को दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्मा के लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है वह उसको परलोक में मिल जाता है । ऐसे ही मृतात्मा के लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं वे मृतात्मा को परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं (टिप्पणी प0 48) । जो अभी जी रहे हैं उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये , प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी क्या दशा होगी उनका भरण-पोषण कैसे होगा ? उनकी सहायता कौन करेगा ? आदि चिन्ता-शोक कभी नहीं करने चाहिये क्योंकि चिन्ता-शोक करने से कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीर के अङ्ग शिथिल हो रहे हैं , मुख सूख रहा है आदि विकारों के पैदा होने में मूल कारण है शरीर के साथ एकता मानना। कारण कि शरीर के साथ एकता मानने से ही शरीर का पालन-पोषण करने वालों के साथ अपनापन हो जाता है और उस अपनेपन के कारण ही कुटुम्बियों के मरने की आशंका से अर्जुन के मन में चिन्ता-शोक हो रहे हैं तथा चिन्ता-शोक से ही अर्जुन के शरीर में उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं । इसमें भगवान ने ‘गतासून’ और ‘अगतासून्’ के शोक को ही कारण बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं वे ‘गतासून्’ हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं वे ‘अगतासून्’ हैं। पिण्ड और जल न मिलने से पितरों का पतन हो जाता है (1। 42) यह अर्जुन की ‘गतासून’ की चिन्ता है और जिनके लिये हम राज्य भोग और सुख चाहते हैं वे ही प्राणों की और धन की आशा छोड़ कर युद्ध में खड़े हैं (1। 33) यह अर्जुन की ‘अगतासून्’ की चिन्ता है। अतः ये दोनों चिन्ताएँ शरीर को लेकर ही हो रही है । अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूप से एक ही हैं। कारण कि ‘गतासून’ और ‘अगतासून’ दोनों ही नाशवान हैं। ‘गतासून्’ और ‘अगतासून’ इन दोनों के लिये कर्तव्यकर्म करना चिन्ता की बात नहीं है। ‘गतासून’ के लिये पिण्ड-पानी देना श्राद्ध-तर्पण करना यह कर्तव्य है और ‘अगतासून ‘ के लिये व्यवस्था कर देना , निर्वाह का प्रबन्ध कर देना यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिन्ता का विषय नहीं होता बल्कि विचार का विषय होता है। विचार से कर्तव्य का बोध होता है और चिन्ता से विचार नष्ट होता है। ‘नानुशोचन्ति पण्डिताः’ सत – असत – विवेकवती बुद्धि का नाम ‘पण्डा’ है। वह ‘पण्डा’ जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत – असत स्पष्टतया विवेक हो गया है वे पण्डित हैं। ऐसे पण्डितों में सत – असत को लेकर शोक नहीं होता क्योंकि सत को सत मानने से भी शोक नहीं होता और असत को असत मानने से भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्स्वरूप है और बदलने वाला शरीर असत्स्वरूप है। असत को सत मान लेने से ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें , मरें नहीं – इस बात को लेकर ही शोक होता है। सत को लेकर कभी चिन्ता-शोक होते ही नहीं। सत्तत्त्व को लेकर शोक करना अनुचित क्यों है ? इस शंका के समाधान के लिये आगे के दो श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी