The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

Chapter 2 Bhagavad Gita Sankhya Yog

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥2 .69॥

 

या-जिसे; निशा-रात्रि; सर्व-सब; भूतानाम्-सभी जीवः तस्याम्-उसमें; जागर्ति-जागता रहता है; संयमी-आत्मसंयमी; यस्याम्-जिसमें; जाग्रति-जागते हैं; भूतानि–सभी जीव; सा-वह; निशा–रात्रि; पश्यतः-देखना; मुनेः-मुनि।

 

जिसे सब लोग दिन समझते हैं वह आत्मसंयमी के लिए अज्ञानता की रात्रि है तथा जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मविश्लेषी मुनियों के लिए दिन है अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि (परमात्मासे विमुखता) के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी ( संयमी मनुष्य ) जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। ।।2.69।।

 

 ‘या निशा सर्वभूतानाम्’ – जिनकी इन्द्रियाँ और मन वश में नहीं हैं , जो भोगों में आसक्त है – वे सब परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। परमात्मा क्या है ? तत्त्वज्ञान क्या है ? हम दुःख क्यों पा रहे हैं ? सन्ताप-जलन क्यों हो रही है ? हम जो कुछ कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ? इस तरफ बिलकुल न देखना ही उनकी रात है उनके लिये बिलकुल अँधेरा है। यहाँ ‘भूतानाम्’ कहने का तात्पर्य है कि जैसे पशु-पक्षी आदि दिन-भर , खाने-पीने में लगे रहते हैं । ऐसे ही जो मनुष्य रात-दिन , खाने-पीने में सुख-आराम में भोगों और संग्रह में धन कमाने में ही लगे हुए हैं । उन मनुष्यों की गणना भी पशु-पक्षी आदि में ही है। कारण कि परमात्मतत्त्व से विमुख रहने में पशु-पक्षी आदि में और मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही परमात्मतत्त्व की तरफ से सोये हुए हैं। हाँ , अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि पशु-पक्षी आदि में विवेकशक्ति जाग्रत नहीं है । इसीलिये वे खाने-पीने आदि में ही लगे रहते हैं और मनुष्यों में भगवान की कृपा से वह विवेकशक्ति जाग्रत है , जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है , प्राणिमात्र की सेवा कर सकता है , परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु उस विवेकशक्ति का दुरूपयोग करके मनुष्य पदार्थों का संग्रह करने में एवं उनका भोग करने में लग जाते हैं , जिससे वे संसार के लिये पशुओं से भी अधिक दुःखदायी हो जाते हैं। कारण कि पशुपक्षी तो बेचारे जितने से पेट भर जाय उतना ही खाते हैं , संग्रह नहीं करते परन्तु मनुष्य को कहीं भी जो कुछ पदार्थ आदि मिल जाता है । वह उसके काम में आये चाहे न आये उसका तो वह संग्रह कर ही लेता है और दूसरों के काम में आने में बाधा डाल देता है। ‘तस्यां जागर्ति संयमी’ मनुष्यों की जो रात है अर्थात् परमात्मा की तरफ से अपने कल्याण की तरफ से जो विमुखता है उसमें संयमी मनुष्य जागता है। जिसने इन्द्रियों और मन को वश में किया है जो भोग और संग्रह में आसक्त नहीं है जिसका ध्येय केवल परमात्मा है वह संयमी मनुष्य है। परमात्मतत्त्व को , अपने स्वरूप को , संसार को यथार्थरूप से जानना ही उसका रात में जागना है। ‘यस्यां जाग्रति भूतानि’ जो भोग और संग्रह में बड़े सावधान रहते हैं । एक-एक पैसे का हिसाब रखते हैं , जमीन के एक-एक इंच का खयाल रखते है । जितने रूपये अधिकार में आ जायँ वे चाहे न्यायपूर्वक हों अथवा अन्यायपूर्वक उसमें वे बड़े खुश होते हैं कि इतनी पूँजी तो हमने ले ही ली है , इतना लाभ तो हमें हो ही गया है । इस तरह वे सांसारिक क्षणभङ्गुर भोगों को बटोरने में और आदर-सत्कार , मान-बड़ाई आदि प्राप्त करने में ही लगे रहते हैं , उनमें बड़े सावधान रहते हैं , यही उन लोगों का जागना है। ‘सा निशा पश्यतो मुनेः’ जिन सांसारिक पदार्थों का भोग और संग्रह करने में मनुष्य अपने को बड़ा बुद्धिमान , चतुर मानते हैं और उसीमें राजी होते हैं संसार और परमात्मतत्त्व को जानने वाले मननशील संयमी मनुष्य की दृष्टि में वह सब रात के समान है , बिलकुल अँधेरा है।जैसे बच्चे खेलते हैं तो वे कंकड़-पत्थर काँच के लाल-पीले टुकड़ों को लेकर आपस में लड़ते हैं। अगर वह मिल जाता है तो राजी होते हैं कि मैंने बहुत बड़ा लाभ उठा लिया और अगर वह नहीं मिलता तो दुःखी हो जाते हैं कि मेरी बड़ी भारी हानि हो गयी परन्तु जिसके मन में कंकड़-पत्थर आदि का महत्त्व नहीं है ऐसा समझदार व्यक्ति समझता है कि इन कंकड़-पत्थरों के मिलने से क्या लाभ हुआ ? और न मिलने से क्या हानि हुई ? इन बच्चों को अगर कंकड़-पत्थर मिल भी जायँगे तो ये कब तक उनके साथ रहेंगे इसी तरह भोग और संग्रह में लगे हुए मनुष्य भोगों के लिये लड़ाई-झगड़ा , झूठ-कपट ,बेईमानी आदि करते हैं और उनको प्राप्त करके राजी होते हैं , खुशी मनाते हैं कि हमने बहुत लाभ ले लिया परन्तु संसार को और परमात्मतत्त्व को जानने वाला मननशील संयमी मनुष्य साफ देखता है कि भोग मिल गये आदर-सत्कार हो गया , सुख-आराम हो गया , खा-पी लिया , खूब श्रृंगार कर लिया तो क्या हो गया ? इसमें मनुष्यों को क्या मिला ? इनमें से इनके साथ क्या चलेगा ? ये कब तक इन भोगों को साथ में रखेंगे ? इन भोगों से होने वाली वृत्ति कितने दिन तक ठहरेगी ? इस तरह उसकी दृष्टि में प्राणियों का जागना रात के समान है। वह मननशील संयमी मनुष्य परमात्मा को अपने स्वरूपको और संसार के परिणाम को तो जानता ही है वह पदार्थों को भी अच्छी तरह से जानता है कि कौनसा पदार्थ किसके हितमें लग सकता है इससे दूसरोंको कितना लाभ होगा ? वह पदार्थों का अपनी-अपनी जगह ठीक तरह से सदुपयोग करता है। उनको दूसरों की सेवामें लगाता है। जैसे नेत्रों मे दोष होने पर जब हम आकाश को देखते हैं तब उसमें जाले से दिखते हैं और आँखें मीच लेने पर भी मोरपंख की तरह वे जाले दिखते हैं परन्तु उनके दिखने पर भी हमारी बुद्धि में यह अटल निश्चय रहता है कि आकाश में जाले नहीं है। ऐसे ही इन्द्रियों और अन्तःकरण के द्वारा संसार दिखने पर भी मननशील संयमी मनुष्य की बुद्धि में यह अटल निश्चय रहता है कि वास्तव में संसार नहीं है केवल प्रतीतिमात्र है।  मननशील संयमी मनुष्य को संसार रात की तरह दिखता है। इस पर यह प्रश्न उठता है कि क्या वह सांसारिक पदार्थों के सम्पर्क में आता ही नहीं । अगर नहीं आता तो उसका जीवननिर्वाह कैसे होता है ? और अगर आता है तो उसकी स्थिति कैसे रहती है ? इन बातों का विवेचन करने के लिये आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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