The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥2.26॥

 

अथ-यदि, फिर भी; च-और; एनम्-आत्मा; नित्य-जातम्-निरन्तर जन्म लेने वाला; नित्यम्-सदैव; वा–अथवा; मन्यसे-तुम ऐसा सोचते हो; मृतम-निर्जीव; तथा अपि-फिर भी; त्वम्-तुम; महाबाहो- बलिष्ठ भुजाओं वाला; न-नहीं; एवम्-इस प्रकार; शोचितुम्–शोक अर्हसि उचित।

 

यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा निरन्तर जन्म लेती है और मरती है तब ऐसी स्थिति में भी, हे महाबाहु अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार से शोक नहीं करना चाहिए॥2.26॥

 

अथ चैनं ৷৷. शोचितुमर्हसि – भगवान यहाँ पक्षान्तर में ‘अथ च ‘ और ‘मन्यसे’ पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धान्त की और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी काल में जन्मने-मरने वाला नहीं है (गीता 2। 20) तथापि अगर तुम सिद्धान्त से बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मने वाला और नित्य मरने वाला है तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये। कारण कि जो जन्मेगा वह मरेगा ही और जो मरेगा वह जन्मेगा ही – इस नियम को कोई टाल नहीं सकता। अगर बीज को पृथ्वीमें बो दिया जाय तो वह फूलकर अंकुर दे देता है और वही अङ्कुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूप से रहा ? पृथ्वी में वह पहले अपने कठोररूप को छोड़कर कोमलरूप में हो गया , फिर कोमलरूप को छोड़कर अंकुर रूप में हो गया । इसके बाद अंकुर रूप को छोड़कर वृक्षरूप में हो गया और अन्त में आयु समाप्त होने पर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूप से नहीं रहा बल्कि प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूप से रहता तो वृक्ष के सूखने तक की क्रिया कैसे होती ? उसने पहले रूप को छोड़ा यह उसका मरना हुआ और दूसरे रूप को धारण किया यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीज की ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्मरूप से वीर्य का जन्तु रज के साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चे के रूप में हो गया और फिर जन्म गया। जन्म के बाद वह बढ़ा फिर घटा और अन्त में मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूप से न रहकर बदलता रहा अर्थात् प्रतिक्षण जन्मता-मरता रहा। भगवान कहते हैं कि अगर तुम शरीर की तरह शरीरी को भी नित्य जन्मने-मरने वाला मान लो तो भी यह शोक का विषय नहीं हो सकता – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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