The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद

 

 

The bHagavad Gita chapter 2

 

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।

क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3॥

 

क्लैब्यम्-नपुंसकता; मा-स्म-न करना; गमः-प्राप्त हो; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; न – कभी नहीं; एतत्-यह; त्वयि- तुमको; उपपद्यते-उपयुक्त; क्षुद्रम्-दया; हृदय-हृदय की; दौर्बल्यम्-दुर्बलता; त्यक्त्वा-त्याग कर; उत्तिष्ठ – खड़ा हो; परम् तप-शत्रुओं का दमनकर्ता।

 

हे पार्थ! अपने भीतर इस प्रकार की नपुंसकता का भाव लाना तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रु विजेता! हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग करो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।।2.3।।

 

‘पार्थ’ (टिप्पणी प0 39.1) माता पृथा (कुन्ती ) के सन्देश की याद दिलाकर अर्जुन के अन्तःकरण में क्षत्रियोचित वीरता का भाव जाग्रत करने के लिये भगवान अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करते हैं (टिप्पणी प0 39.2)। तात्पर्य है कि अपने में कायरता लाकर तुम्हें माता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। ‘क्लैब्यं मा स्म गमः’ – अर्जुन कायरता के कारण युद्ध करने में अधर्म और युद्ध न करने में धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुन को चेताने के लिये भगवान कहते हैं कि युद्ध न करना धर्म की बात नहीं है । यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है। इसलिये तुम इस नपुंसकता को छोड़ दो। ‘नैतत्त्वय्युपपद्यते’ तुम्हारे में यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था क्योंकि तुम कुन्ती जैसी वीर , क्षत्राणी , माता के पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्म से और अपनी प्रकृति से भी यह नपुंसकता तुम्हारे में सर्वथा अनुचित है। ‘परंतप’- तुम स्वयं परंतप हो अर्थात् शत्रुओं को तपाने वाले , भगाने वाले हो तो क्या तुम इस समय युद्ध से विमुख होकर अपने शत्रुओं को हर्षित करोगे ? ‘क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ’ – यहाँ ‘क्षुद्रम्’ पद के दो अर्थ होते हैं (1) यह हृदय की दुर्बलता , तुच्छता को प्राप्त कराने वाली है अर्थात् मुक्ति , स्वर्ग अथवा कीर्ति को देने वाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छता का त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे और (2) यह हृदय की दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारे जैसे शूरवीर के लिये ऐसी तुच्छ चीज का त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है। तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है , कमजोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्ध के लिये खड़े हो जाओ अर्थात् अपने प्राप्त कर्तव्य का पालन करो। यहाँ अर्जुन के सामने युद्धरूप कर्तव्यकर्म है। इसलिये भगवान कहते हैं कि उठो , खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्य का पालन करो। भगवान के मन में अर्जुन के कर्तव्य के विषय में जरा सा भी सन्देह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियों से अर्जुन के लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुन की थोथी युक्तियों की परवाह न करके उनको अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करने के लिये खड़े हो जाओ। पहले अध्याय में अर्जुन ने युद्ध न करने के विषय में बहुत सी युक्तियाँ (दलीलें) दी थीं। उन युक्तियों का कुछ भी आदर न करके भगवान ने एकाएक अर्जुन को कायरतारूप दोष के लिये जो रसे फटकारा और युद्ध के लिये खड़े हो जाने की आज्ञा दे दी। इस बात को लेकर अर्जुन भी अपनी युक्तियों का समाधान न पाकर एकाएक उत्तेजित होकर बोल उठे – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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