सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2.48॥
योगस्थः-योग में स्थिर होकर; कुरु-करो; कर्मणि-कर्त्तव्यः सङ्गम्-आसक्ति को; त्यक्त्वा-त्याग कर; धनञ्जय-अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयोः-सफलता तथा विफलता में; समः-समभाव; भूत्वा-होकर; समत्वम्-समभाव; योग–योग; उच्यते-कहा जाता है।
हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर योग में स्थित होकर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है॥2.48॥
‘सङ्गं त्यक्त्वा’ किसी भी कर्म में , किसी भी कर्म के फल में , किसी भी देश , काल , घटना , परिस्थिति , अन्तःकरण , बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तु में तेरी आसक्ति न हो तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म फल आदि किसी में भी चिपक जायेगा तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी ? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा ? ‘सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा ‘ – आसक्ति के त्याग का परिणाम क्या होगा ? सिद्धि और असिद्धि में समता हो जायगा। कर्म का पूरा होना अथवा न होना सांसारिक दृष्टि से उसका फल अनुकूल होना अथवा प्रतिकूल होना उस कर्म को करने से आदर-निरादर , प्रशंसा-निन्दा होना , अन्तःकरण की शुद्धि होना अथवा न होना आदि आदि जो सिद्धि और असिद्धि है , उसमें सम रहना चाहिये (टिप्पणी प0 86) । कर्मयोगी की इतनी समता अर्थात् निष्कामभाव होना चाहिये कि कर्मों की पूर्ति हो चाहे न हो , फल की प्राप्ति हो चाहे न हो , अपनी मुक्ति हो चाहे न हो मुझे तो केवल कर्तव्यकर्म करना है। साधक को असङ्गता का अनुभव न हुआ हो , उसमें समता न आयी हो तो भी उसका उद्देश्य असङ्ग होने का , सम होने का ही हो। जो बात उद्देश्य में आ जाती है वही अन्त में सिद्ध हो जाती है। अतः साधनरूप समता से अर्थात् अन्तःकरण की समता से साध्यरूप समता स्वतः आ जाती है – ‘तदा योगमवाप्स्यसि (2। 53)। योगस्थः कुरु कर्माणि’ – सिद्धि-असिद्धि में सम होने के बाद उस समता में निरन्तर अटल स्थित रहना ही योगस्थ होना है। जैसे किसी कार्य के आरम्भ में गणेशजी का पूजन करते हैं तो उस पूजन को कार्य करते समय हरदम साथ में नहीं रखते – ऐसे ही कोई यह न समझ ले कि आरम्भ में एक बार सिद्धि-असिद्धि में सम हो गये तो अब उस समता को हरदम साथ में नहीं रखना है , राग-द्वेष करते रहना है । इसलिये भगवान कहते हैं कि समता में हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्यकर्म को करना चाहिये। ‘समत्वं योग उच्यते’ – समता ही योग है अर्थात् समता परमात्मा का स्वरूप है। वह समता अन्तःकरण में निरन्तर बनी रहनी चाहिये। आगे 5वें अध्याय के 19वें श्लोक में भगवान कहेंगे कि जिनका मन समता में स्थित हो गया है उन लोगों ने जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया है क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है । अतः उनकी स्थिति ब्रह्म में ही है। समता का नाम योग है । यह योग की परिभाषा है। इसी को आगे छठे अध्याय के 23वें श्लोक में कहेंगे कि दुःखों के संयोग का जिसमें वियोग है उसका नाम योग है। ये दोनों परिमाषाएँ वास्तव में एक ही हैं। जैसे दाद की बीमारी में खुजली का सुख होता है और जलन का दुःख होता है पर ये दोनों ही बीमारी होने से दुःखरूप है । ऐसे ही संसार के सम्बन्ध से होने वाला सुख और दुःख दोनों ही वास्तव में दुःखरूप हैं। ऐसे संसार से सम्बन्ध-विच्छेद का नाम ही दुःख-संयोग-वियोग है। अतः चाहे दुःखों के संयोग का वियोग अर्थात सुख-दुःख से रहित होना कहें , चाहे सिद्धि-असिद्धि में अर्थात् सुख-दुःख में सम होना कहें – एक ही बात है। इस श्लोक का तात्पर्य यह हुआ कि स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर से होने वाली मात्र क्रियाओं को केवल संसार की सेवारूप से करना है , अपने लिये नहीं। ऐसा करने से ही समता आयेगी। बुद्धि और समतासम्बन्धी विशेष बात बुद्धि दो तरह की होती है – अव्यवसायात्मिका और व्यवसायात्मिका। जिसमें सांसारिक सुख भोग , आराम , मान-बड़ाई आदि प्राप्त करने का ध्येय होता है वह बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है (गीता 2। 44)। जिसमें समता की प्राप्ति करने का अपना कल्याण करने का ही उद्देश्य रहता है वह बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है (गीता 2। 41)। अव्यसायात्मिका बुद्धि अनन्त होती है और व्यवसायात्मिका बुद्धि एक होती है। जिसकी बुद्धि अव्यवसायात्मिका होती है वह स्वयं अव्यवसायी (अव्यवसित) होता है – ‘बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्’ (2। 41) तथा वह संसारी होता है। जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है वह स्वयं व्यवसायी (व्यवसित) होता है – ‘व्यवसितो हि सः ‘ (9। 30) तथा वह साधक होता है। समता भी दो तरह की होती है – साधनरूप समता और साध्यरूप समता। साधनरूप समता अन्तःकरण की होती है और साध्यरूप समता परमात्मस्वरूप की होती है। सिद्धि-असिद्धि , अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि में सम रहना अर्थात् अन्तःकरण में राग-द्वेष का न होना साधनरूप समता है , जिसका वर्णन गीता में अधिक हुआ है। इस साधनरूप समता से जिस स्वतःसिद्ध समता की प्राप्ति होती है , वह साध्यरूप समता है जिसका वर्णन इसी अध्याय के 53वें श्लोक में ‘तदा योगमवाप्स्यसि’ पदोंसे हुआ है। अब इन चारों भेदों को यों समझें कि एक संसारी होता है और एक साधक होता है , एक साधन होता है और एक साध्य होता है। भोग भोगना और संग्रह करना यही जिसका उद्देश्य होता है , वह संसारी होता है। उसकी एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती बल्कि कामनारूपी शाखाओं वाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं। मेरे को तो समता की प्राप्ति ही करनी है चाहे जो हो जाय ऐसा निश्चय करने वाले की व्यवसायात्मिका बुद्धि होती है। ऐसा साधक जब व्यवहारक्षेत्र में आता है तब उसके सामने सिद्धि-असिद्धि , लाभ-हानि , अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आदि आने पर वह उनमें सम रहता है , राग-द्वेष नहीं करता। इस साधनरूप समता से वह संसार से ऊँचा उठ जाता है – ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः’ (गीता 5। 19 का पूर्वार्ध)। साधनरूप समता से स्वतःसिद्ध समरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है – ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ‘ (गीता 5। 19 का उत्तरार्ध)। 39वें से 48वें श्लोक तक जिस समबुद्धि वर्णन हुआ है , सकामकर्म की अपेक्षा उस समबुद्धि की श्रेष्ठता आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी