The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2

 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥2.31॥

 

स्वधर्मम्-वेदों के अनुसार निर्धारित कर्त्तव्य; अपि-भी; च-और; अवेक्ष्य–विचार कर; न – नहीं; विकम्पितुम्-त्यागना; अर्हसि-चाहिए; धर्म्यात् -धर्म के लिए; हि-वास्तव में ; युद्धात्-युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः-श्रेष्ठ; अन्यत्-अन्य; क्षत्रियस्य– योद्धा ; न-नहीं; विद्यते-है।

 

इसके अलावा वेदों के अनुसार निर्धारित अपने धर्म को देखकर भी एक योद्धा के रूप में अपने कर्तव्य पर विचार करते हुए तुम्हें उसका त्याग नहीं करना चाहिए। वास्तव में योद्धा के लिए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करने से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है। तू भय करने योग्य नहीं है॥2.31॥

 

पहले दो श्लोकों में युद्ध से होने वाले लाभ का वर्णन करते हैं। ‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि’ यह स्वयं परमात्मा का अंश है। जब यह शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है तब यह ‘स्व’ को अर्थात् अपने आपको जो कुछ मानता है उसका कर्तव्य स्वधर्म कहलाता है। जैसे कोई अपने आपको ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य अथवा शूद्र मानता है तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपने को शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकर के कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपने को किसी का पिता या किसी का पुत्र मानता है तो पुत्र या पिता के प्रति किये जाने वाले कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। यहाँ क्षत्रिय के कर्तव्यकर्म को धर्म नाम से कहा गया है  (टिप्पणी प0 71.2) । क्षत्रिय का खास कर्तव्यकर्म है युद्ध से विमुख न होना। अर्जुन क्षत्रिय हैं । अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिये भगवान कहते हैं कि अगर स्वधर्म को लेकर देखा जाय तो भी क्षात्रधर्म के अनुसार तुम्हारे लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अपने कर्तव्य से तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिये। ‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते’   धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है अर्थात् क्षत्रिय के लिये क्षत्रिय के कर्तव्य का अनुष्ठान करना ही खास काम है (गीता 18। 43)। ऐसे ही ब्राह्मण वैश्य और शूद्र के लिये भी अपने-अपने कर्तव्य का अनुष्ठान करने के सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है। अर्जुन ने सातवें श्लोक में प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिये निश्चित श्रेय की बात कहिये। उसके उत्तर में भगवान कहते हैं कि श्रेय (कल्याण) तो अपने धर्म का पालन करने से ही होगा। किसी भी दृष्टि से अपने धर्म का त्याग कल्याणकारक नहीं है। अतः तुम्हें अपने युद्धरूप धर्म से विमुख नहीं होना चाहिये – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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