The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥2.22॥

 

वासांसि-वस्त्र; जीर्णानि-फटे पुराने; यथा-जिस प्रकार; विहाय-त्याग कर; नवानि–नये; गृहणति-धारण करता है; नरः-मनुष्य; अपराणिअन्य; तथा – उसी प्रकार; शरीराणि- शरीर को; विहाय-त्याग कर; जीर्णानि-व्यर्थ; अन्यानि-भिन्न; संयाति-प्रवेश करता है; नवानि–नये; देही -देहधारी आत्मा।

 

जिस प्रकार से मनुष्य अपने फटे पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा पुराने तथा व्यर्थ शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है॥2.22॥

 

वासांसि जीर्णानि ৷৷. संयाति नवानि देही – इसी अध्याय के 13वें श्लोक में सूत्ररूप से कहा गया था कि देहान्तर की प्राप्ति के विषय में धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बात को उदाहरण देकर स्पष्टरूप से कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ों के परिवर्तन पर मनुष्य को शोक नहीं होता । ऐसे ही शरीरों के परिवर्तन पर भी शोक नहीं होना चाहिये। कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं , पशु-पक्षी नहीं । अतः यहाँ कपड़े बदलने के उदाहरण में ‘नरः’ पद दिया है। यह ‘नरः’ पद मनुष्ययोनि का वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष , बालक-बालिकाएँ , जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है । ऐसे ही यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण करता है। पुराना शरीर छोड़ने को मरना कह देते हैं और नया शरीर धारण करने को जन्मना कह देते हैं। जब तक प्रकृति के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर कर्मों के अनुसार या अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार नये-नये शरीरों को प्राप्त होता रहता है। यहाँ ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जब तक शरीरी को अपने वास्तविक स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं होता तब तक यह शरीरी अनन्त काल तक शरीर धारण करता ही रहता है। आज तक इसने कितने शरीर धारण किये हैं इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बात को लक्ष्य में रखकर ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवों का लक्ष्य कराने के लिये यहाँ ‘देही’ पद आया है। यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में तो जीर्ण कपड़ों की बात कही है और उत्तरार्ध में जीर्ण शरीरों की। जीर्ण कपड़ों का दृष्टान्त शरीरों में कैसे लागू होगा ? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानों के भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ों के जीर्ण शरीर मर जाते हों यह बात तो है नहीं । इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होने पर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीर का जीर्ण होना है  (टिप्पणी प0 62) । शरीर चाहे बच्चों का हो , चाहे जवानों का हो , चाहे वृद्धों का हो । आयु समाप्त होने पर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे। इस श्लोक में भगवान ने ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है वैसे ही यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों में चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार , युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने आप होती हैं वैसे ही देहान्तर की प्राप्ति अपने आप होती है (2। 13) यहाँ तो  यथा  (जैसे) और  तथा  (वैसे) घट जाते हैं परन्तु (इस श्लोक में ) पुराने कपड़ों को छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो मनुष्य की स्वतन्त्रता है पर पुराने शरीरों को छोड़ने में और नये शरीर धारण करने में देही की स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’  कैसे घटेंगे ? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान का तात्पर्य स्वतन्त्रता-परतन्त्रता की बात कहने में नहीं हैं बल्कि शरीर के वियोग से होने वाले शोक को मिटाने में है। जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपडे धारण करने पर भी धारण करने वाला (मनुष्य) वही रहता है । वैसे ही पुराने शरीरों को छोड़ कर नये शरीरों में चले जाने पर भी देही ज्यों का त्यों निर्लिप्त रूप से रहता है । अतः शोक करने की कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टि से यह दृष्टान्त ठीक ही है। दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो सुख होता है पर पुराने शरीर छोड़ने में और नये शरीर धारण करने में दुःख होता है। अतः यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे ? इसका समाधान .यह है कि शरीरों के मरने का जो दुःख होता है वह मरने से नहीं होता बल्कि जीने की इच्छा से होता है। मैं जीता रहूँ – ऐसी जीने की इच्छा भीतर में रहती है और मरना पड़ता है , तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीर के साथ एकात्मता कर लेता है तब वह शरीर के मरने से अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है परन्तु जो शरीर के साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता उसको मरने में दुःख नहीं होता बल्कि आनन्द होता है ।  जैसे मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता तो कपड़ों को बदलने में उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ परन्तु वही कपड़ों का बदलना अगर छोटे बच्चे का किया जाय तो वह पुराने कपड़े उतारने में और नये कपड़े धारण करने में भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खता से , नासमझी से होता है। इस मूर्खता को मिटाने के लिये ही भगवान ने यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कपड़ों का दृष्टान्त दिया है। यहाँ भगवान ने कपड़ों के धारण करने में तो ‘गृह्णाति’ (धारण करता है) क्रिया दी पर शरीरों के धारण करने में ‘संयाति ‘ (जाता है) क्रिया दी । ऐसा क्रियाभेद भगवान ने क्यों किया ? लौकिक दृष्टि से बेसमझी के कारण ऐसा दिखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ों को धारण करता है और देहान्तर की प्राप्ति में देही को उन-उन देहों में जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टि को लेकर ही भगवान ने क्रियाभेद किया है। विशेष बात – गीता में ‘येन सर्वमिदं ततम्  (2। 17)  नित्यः सर्वगतः स्थाणुः ‘ (2। 24) आदि पदों से देही को सर्वत्र व्याप्त , नित्य , सर्वगत और स्थिर स्वभाव वाला बताया तथा ‘संयाति नवानि देही  (2। 22)  शरीरं यदवाप्नोति’  (15। 8) आदि पदों से देही को दूसरे शरीरों में जाने की बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है , सर्वत्र व्याप्त है उसका जाना-आना कैसे ? क्योंकि जो जिस देश में न हो उस देश में चला जाय तो इसको जाना कहते हैं और जो दूसरे देश में है वह इस देश में आ जाय तो इसको आना कहते हैं परन्तु देही के विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं । इसका समाधान यह है कि जैसे किसी की बाल्यावस्था से युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि मैं जवान हो गया हूँ परन्तु वास्तव में वह स्वयं जवान नहीं हुआ है बल्कि उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था युवावस्थामें भी वह था युवावस्थामें भी वह वही है परन्तु शरीर से तादात्म्य मानने के कारण वह शरीर के परिवर्तन को अपने में आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तव में शरीर का धर्म है पर शरीर के साथ तादात्म्य होने से वह अपने में आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तव में देही का कहीं भी आना-जाना नहीं होता केवल शरीरों के तादात्म्य के कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है।अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकाल से जो जन्म-मरण चला आ रहा है उसमें कारण क्या है ? कर्मों की दृष्टि से तो शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिये जन्म-मरण होता है , ज्ञान की दृष्टि से अज्ञान के कारण जन्म-मरण होता है और भक्ति की दृष्टि से भगवान की विमुखता के कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनों में भी मुख्य कारण है कि भगवान ने जीव को जो स्वतन्त्रता दी है उसका दुरुपयोग करने से ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे ? मिली हुई स्वतन्त्रता का सदुपयोग करने से जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थ के लिये कर्म करने से जन्म-मरण हुआ है । अतः अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों के हित के लिये कर्म करने से जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारी का अनादर करने से  (टिप्पणी प0 63)  जन्म-मरण हुआ है ।अतः अपनी जानकारी का आदर करने से जन्म-मरण मिट जायगा। भगवान से विमुख होने से जन्म-मरण हुआ है । अतः भगवान के सम्मुख होने से जन्म-मरण मिट जायगा। पहले दृष्टान्तरूप से शरीरी की निर्विकारता का वर्णन करके अब आगे के तीन श्लोकों में उसी का प्रकारान्तर से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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