The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 2

व्यवसायत्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥2.41॥

 

व्यवसाय आत्मिका-दृढ़ संकल्प; बुद्धि:-बुद्धि; एका-एकमात्र; इह-इस मार्ग पर; कुरुनन्दन-कुरु वंशी; बहुशाखा:-अनेक शाखा; हि-निश्चय ही; अनन्ताः-असीमित; च-भी; बुद्धयः-वुद्धि; अव्यवसायिनाम्-संकल्प रहित।

 

हे कुरुवंशी! जो इस मार्ग का अनुसरण करते हैं, उनकी बुद्धि निश्चयात्मक होती है और उनका एकमात्र लक्ष्य होता है लेकिन जो मनुष्य संकल्पहीन होते हैं उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं मे विभक्त रहती है॥2.41॥

 

‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ‘ कर्मयोगी साधक का ध्येय (लक्ष्य) जिस समता को प्राप्त करना रहता है वह समता परमात्मा का स्वरूप है। उस परमात्मस्वरूप समता की प्राप्ति के लिये अन्तःकरण की समता साधन है , अन्तःकरण की समता में संसार का राग बाधक है। उस राग को हटाने का अथवा परमात्मतत्त्व को प्राप्त करने का जो एक निश्चय है उसका नाम है व्यवसायात्मिका बुद्धि। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों होती है ? कारण कि इसमें सांसारिक वस्तु , पदार्थ आदि की कामना का त्याग होता है। यह त्याग एक ही होता है – चाहे धन की कामना का त्याग करें चाहे मान-बड़ाई की कामना का त्याग करें परन्तु ग्रहण करने में अनेक चीजें होती है क्योंकि एक-एक चीज अनेक तरह की होती है जैसे एक ही मिठाई अनेक तरह की होती है। अतः इन चीज़ों की कामनाएं भी अनेक , अनन्त होती हैं। गीता में कर्मयोग (प्रस्तुत श्लोक) और भक्तियोग (9। 30) के प्रकरण में तो व्यवसायात्मिका बुद्धि का वर्णन आया है पर ज्ञानयोग के प्रकरण में व्यवसायात्मिका बुद्धि का वर्णन नहीं आया। इसका कारण यह है कि ज्ञानयोग में पहले स्वरूप का बोध होता है फिर उसके परिणामस्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चय वाली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में पहले बुद्धि का एक निश्चय होता है फिर स्वरूप का बोध होता है। अतः ज्ञानयोग में ज्ञान की मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में एक निश्चय की मुख्यता है। ‘बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ‘ – अव्यवसायी वे होते हैं जिनके भीतर सकाम-भाव होता है , जो भोग और संग्रह में आसक्त होते हैं। कामना के कारण ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त होती हैं और वे बुद्धियाँ भी अनन्त शाखाओं वाली होती हैं अर्थात् एक-एक बुद्धि की भी अनन्त शाखाएँ होती हैं। जैसे पुत्रप्राप्ति करनी है – यह एक बुद्धि हुई और पुत्रप्राप्ति के लिये किसी औषध का सेवन करें , किसी मन्त्र का जप करें , कोई अनुष्ठान करें , किसी सन्त का आशीर्वाद लें आदि उपाय उस बुद्धि की अनन्त शाखाएँ हुईं। ऐसे ही धनप्राप्ति करनी है – यह एक बुद्धि हुई और धनप्राप्ति के लिये व्यापार करें , नौकरी करें , चोरी करें , डाका डालें , धोखा दें , ठगाई करें आदि उस बुद्धि की अनन्त शाखाएँ हुईं । ऐसे मनुष्यों की बुद्धि में परमात्मप्राप्ति का निश्चय नहीं होता। अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त क्यों होती है ? इसका कारण आगे के तीन श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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