The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥2.14॥

 

मात्रा-स्पर्श:-इन्द्रिय विषयों के साथ संपर्क; तु–वास्तव में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; शीत-जाड़ा; उष्ण-ग्रीष्म; सुख-सुख, दुःख-दुख; दाः-देने वाले; आगम-आना; अपायिनः-जाना; अनित्या:-क्षणिक; तान्–उनको; तितिक्षस्व-सहन करना; भारत-हे भरतवंशी।

 

हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रिय और उसके विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख तथा दुख का अनुभव क्षण भंगुर है। ये स्थायी न होकर सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान हैं। हे भरतवंशी! मनुष्य को चाहिए कि वह विचलित हुए बिना उनको सहन करना सीखे।।२.14।।

यहाँ एक शंका होती है कि इन 14वें – 15वें श्लोकों से पहले (11 से 13) और आगे (16 से 30 तक) देही और देह इन दोनों का ही प्रकरण है। फिर बीच में मात्रास्पर्श के ये दो श्लोक (प्रकरण से अलग) कैसे आये ? इसका समाधान यह है कि जैसे 12वें श्लोक में भगवान ने सम्पूर्ण जीवों के नित्यस्वरूप को बताने के लिये किसी काल में मैं नहीं था – ऐसी बात नहीं है – ऐसा कहकर अपने को उन्हीं की पंक्ति में रख दिया । ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थों को अनित्य , विनाशी , परिवर्तनशील बताने के लिये भगवान ने यहाँ मात्रास्पर्श की बात कही है। ‘तु’ नित्यत्तत्त्व से देहादि अनित्य वस्तुओं को अलग बताने के लिये यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘मात्रास्पर्शाः’ –   जिनसे माप-तौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है उन (ज्ञान के साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरण का नाम ‘मात्रा’ है। मात्रा से अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरण से जिनका संयोग होता है उनका नाम ‘स्पर्श’ है। अतः इन्द्रियों और अन्तःकरण से जिनका ज्ञान होता है – ऐसे सृष्टि के मात्र पदार्थ ‘मात्रास्पर्शाः’ हैं। यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ ? पदार्थों का सम्बन्ध क्यों न लिया जाय ? अगर हम यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थों का सम्बन्ध ही लें तो उस सम्बन्ध को ‘आगमापायिनः’ (आने-जाने वाला) नहीं कह सकते क्योंकि सम्बन्ध की स्वीकृति केवल अन्तःकरण में न होकर स्वयं में (अहम में ) होती है। स्वयं नित्य है इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है वह भी नित्य जैसी ही हो जाती है। स्वयं जब तक उस स्वीकृति को नहीं छोड़ता तब तक वह स्वीकृति ज्यों की त्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थों का वियोग हो जाने पर भी , पदार्थों के न रहने पर भी उन पदार्थों का सम्बन्ध बना रहता है  (टिप्पणी प0 52) । जैसे कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पति से सदा के लिये वियोग हो गया है पर पचास वर्ष के बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुक की स्त्री है तो उसके कान खड़े हो जाते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी (पति) के न रहने पर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है। इस दृष्टि से उस सम्बन्ध को आने-जाने वाला कहना बनता नहीं । अतः यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से पदार्थों का सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं। ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’ यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलता के वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के विषय हो जायँगे जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीत का अर्थ अनुकूलता और उष्ण का अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है। मात्र पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं -ऐसी अनुकूल वस्तु  , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना , देश , काल आदि के मिलने से सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते ऐसी प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि के मिलने से दुःख होता है। यहाँ अनुकूलता-प्रतिकूलता कारण हैं और सुख-दुःख कार्य हैं। वास्तव में देखा जाय तो इन पदार्थों में सुख-दुःख देने की सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य इन के साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलता-प्रतिकूलता की भावना कर लेता है जिससे ये पदार्थ सुख-दुःख देने वाले दिखते हैं। अतः भगवान ने यहाँ ‘सुखदुःखदाः’  कहा है। ‘आगमापायिनः’ मात्र पदार्थ आदि-अन्त वाले उत्पत्ति-विनाशशील और आने-जानेवाले हैं। वे ठहरने वाले नहीं है क्योंकि वे उत्पत्ति से पहले नहीं थे और विनाश के बाद भी नहीं रहेंगे। इसलिये वे ‘आगमापायी’ हैं। ‘अनित्याः’ अगर कोई कहे कि वे उत्पत्ति से पहले और विनाश के बाद भले ही न हों पर मध्य में तो रहते ही होंगे तो भगवान कहते हैं कि अनित्य होने से वे मध्य में भी नहीं रहते। वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। इतनी तेजी से बदलते हैं कि उनको उसी रूप में दुबारा कोई देख ही नहीं सकता क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं। इसलिये भगवान ने उनको ‘अनित्याः’ कहा है। केवल वे पदार्थ ही अनित्य परिवर्तनशील नहीं हैं बल्कि जिनसे उन पदार्थों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं। उनके परिवर्तन को कैसे समझें ? जैसे दिन में काम करते-करते शाम तक इन्द्रियों आदि में थकावट आ जाती है और सबेरे तृप्तिपूर्वक नींद लेने पर उनमें जो ताजगी आयी थी वह शाम तक नहीं रहती। इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है जिससे इन्द्रियों की थकावट मिटती है और ताजगी का अनुभव होता है। जैसे जाग्रत्अवस्था में प्रतिक्षण थकावट आती रहती है । ऐसे ही नींद में प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदि में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। यहाँ मात्र पदार्थों को स्थूलरूप से ‘आगमापायिनः’ और सूक्ष्मरूप से ‘अनित्याः’ कहा गया है। इनको अनित्य से भी सूक्ष्म बताने के लिये आगे 16वें श्लोक में इनको ‘असत्’ कहेंगे और पहले जिस नित्यतत्त्व का वर्णन हुआ है उसको ‘सत् ‘ कहेंगे। ‘तांस्तितिक्षस्व’ ये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियों के विषय हैं उनके सामने आने पर यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है – ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है बल्कि उनको लेकर अन्तःकरण में राग-द्वेष , हर्ष-शोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है। अतः अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान होने पर भी राग-द्वेषादि विकारों को पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शों में निर्विकार रहना ही उनको सहना है। इस सहने को ही भगवान ने ‘तितिक्षस्व’ कहा है। दूसरा भाव यह है कि शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण आदि की क्रियाओं का , अवस्थाओं का आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है। वे क्रियाएँ , अवस्थाएँ तुम्हारे में नहीं हैं क्योंकि तुम उनको जानने वाले हो , उनसे अलग हो। तुम स्वयं ज्यों के त्यों रहते हो। अतः उन क्रियाओं में , अवस्थाओं में तुम निर्विकार रहो। इनमें निर्विकार रहना ही ‘तितिक्षा’ है। पूर्वश्लोक में मात्रास्पर्शों की तितिक्षा की बात कही। अब ऐसी तितिक्षा से क्या होगा ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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