The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥2.15॥

 

यम्-जिस; हि-निश्चित रूप से; न- कभी नहीं; व्यथयन्ति–दुखी नहीं होते; एते -ये सब; पुरुषम्-मनुष्य को; पुरुष ऋषभ-पुरुषों में श्रेष्ठ, अर्जुन; सम-अपरिवर्तनीय; दुःख-दुख में; सुखम्- सुख में; धीरम्-धीर पुरुष; सः-वह पुरुष; अमृतत्वाय–मुक्ति के लिए; कल्पते-पात्र है

 

हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों परिस्थितियों में स्थिर रहता है, वह वास्तव मे मुक्ति का पात्र है।.२.15।।

 

  ‘पुरुषर्षभ’ मनुष्य प्रायः परिस्थितियों को बदलने का ही विचार करता है जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थिति के प्राप्त होने पर अर्जुन ने उसको बदलने का विचार न करके अपने कल्याण का विचार कर लिया है। यह कल्याण का विचार करना ही मनुष्यों में उनकी श्रेष्ठता है। ‘समदुःखसुखं धीरम्’ धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम होता है। अन्तःकरण की वृत्ति से ही सुख और दुःख ये दोनों अलग-अलग दिखते हैं। सुख-दुःख के भोगने में पुरुष (चेतन) कारण है और वह कारण बनता है प्रकृति में स्थित होने से (गीता 13। 2021)। जब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है तब सुख-दुःख को भोगने वाला कोई नहीं रहता। अतः अपने आप में स्थित होने से वह सुख-दुःख में स्वाभाविक ही सम हो जाता है। ‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम्’ धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृति के मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थों के संयोग से जो सुख होता है वह भी व्यथा है और उन पदार्थों के वियोग से जो दुःख होता है वह भी व्यथा है परन्तु जिसकी दृष्टि समता की तरफ है उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दुःखी नहीं कर सकते। समता की तरफ दृष्टि रहने से अनुकूलता को लेकर उस सुख का ज्ञान तो होता है पर उसका भोग न होने से अन्तःकरण में उस सुख का स्थायी रूप से संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आने पर उस दुःख का ज्ञान तो होता है पर उसका भोग न होने से अन्तःकरण में उस दुःख का स्थायीरूप से संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दुःख के संस्कार न पड़ने से वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्तःकरण में सुख-दुःख का ज्ञान होने से वह स्वयं सुखी-दुःखी नहीं होता। ‘सोऽमृतत्वाय कल्पते’ ऐसा धीर मनुष्य अमरता के योग्य हो जाता है अर्थात् उसमें अमरता प्राप्त करने की सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य , योग्यता आने पर वह अमर हो ही जाता है – इसमें देरी का कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वतःसिद्ध है। केवल पदार्थों के संयोग-वियोग से जो अपने में विकार मानता था यही गलती थी।  विशेष बात – यह मनुष्ययोनि सुख-दुःख भोगने के लिये नहीं मिली है बल्कि सुख-दुःख से ऊँचा उठकर महान आनन्द परम शान्ति की प्राप्ति के लिये मिली है । जिस आनन्द , सुख-शान्ति के प्राप्त होने के बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता (गीता 6। 22)। अगर अनुकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि के होने में अथवा उनकी सम्भावना में हम सुखी होंगे अर्थात् हमारे भीतर अनुकूल वस्तु , व्यक्ति आदि को प्राप्त करने की कामना , लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलता का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलता का सदुपयोग करने की सामर्थ्य , शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलता का सदुपयोग करने की शक्ति अनुकूलता के भोग में खर्च हो जायगी जिससे अनुकूलता का सदुपयोग नहीं होगा किन्तु भोग ही होगा। इसी रीति से प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना , क्रिया आदि के आने पर अथवा उनकी आशंका से हम दुःखी होंगे तो प्रतिकूलता का सदुपयोग नहीं होगा किन्तु भोग ही होगा। दुःख को सहने की सामर्थ्य हमारे में नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलता के भोग में ही फँसे रहेंगे और दुःखी होते रहेंगे। अगर अनुकूल वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख-सामग्री का अपने सुख , आराम ,सुविधा के लिये उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलता का भोग हुआ परन्तु निर्वाह-बुद्धि से उपयोग करते हुए उस सुखसामग्री को अभावग्रस्तों की सेवा में लगा दें तो यह अनुकूलता का सदुपयोग हुआ। अतः सुख-सामग्री को दुःखियों की ही समझें। उसमें दुःखियों का ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होने का सुख होता है ,अभिमान होता है परन्तु यह सब तब होता है जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने , हमारे देखने-सुनने में जो आते हैं – वे सब के सब करोड़पति हों तो क्या हमें लखपति होने का सुख मिलेगा , बिलकुल नहीं मिलेगा। अतः हमें लखपति होने का सुख तो अभावग्रस्तों ने , दरिद्रों ने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुखसामग्री से अभावग्रस्तों की सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं तो हम कृतघ्न होते हैं। इसी से सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुखसामग्री है वह दुःखी आदमियों की ही दी हुई है। अतः उस सुखसामग्री को दुःखियों की सेवा में लगा देना हमारा कर्तव्य होता है। अब विचार यह करना है कि प्रतिकूलता का सदुपयोग कैसे किया जाय ? दुःख का कारण सुख की इच्छा , आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है जब भीतर सुख की इच्छा रहती है। अगर हम सावधानी के साथ , अनुकूलता की इच्छा का , सुख की आशा का त्याग कर दें तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थिति में दुःख नहीं हो सकता अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति दुःखी नहीं कर सकती। जैसे रोगी को कड़वी से कड़वी दवाई लेनी पड़े तो भी उसे दुःख नहीं होता बल्कि इस बात को लेकर प्रसन्नता होती है कि इस दवाई से मेरा रोग नष्ट हो रहा है। ऐसे ही पैर में काँटा गहरा गड़ जाय और काँटा निकालने वाला उसे निकालने के लिये सुई से गहरा घाव बनाये तो बड़ी पीड़ा होती है। उस पीड़ा से वह सिसकता है , घबराता है पर वह काँटा निकालने वाले को यह कभी नहीं कहता कि भाई ! तुम छोड़ दो ,काँटा मत निकालो। काँटा निकल जायगा , सदा के लिये पीड़ा दूर हो जायगी – इस बात को लेकर वह इस पीड़ा को प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है। यह जो सुख की इच्छा का त्याग करके दुःख को , पीड़ा को प्रसन्नतापूर्वक सहना है – यह प्रतिकूलता का सदुपयोग है। अगर वह कड़वी दवाई लेने से काँटा निकालने की पीड़ा से दुःखी हो जाता है तो यह प्रतिकूलता का भोग है जिससे उसको भयंकर दुःख पाना पड़ेगा। यदि हम सुख-दुःख का उपभोग करते रहेंगे तो भविष्य में हमें भोग-योनियों में अर्थात् स्वर्ग-नरक आदि में जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगने के स्थान ये स्वर्ग-नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुःख का भोग करते हैं , सुख-दुःख में सम नहीं रहते , सुख-दुःख से ऊँचे नहीं उठते तो हम मुक्ति के पात्र कैसे होंगे ? नहीं हो सकते। 14वें श्लोक में भगवान ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले और आने-जाने वाले हैं , सदा रहने वाले नहीं हैं क्योंकि ये अनित्य हैं , क्षणभङ्गुर हैं। इनके प्राप्त होने पर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शुरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे , पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमान में भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं , सुख-दुःख के भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दुःख के भोगी बनकर हम भोगयोनि के ही पात्र बनते जा रहे हैं । फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी ? हमें भुक्ति (भोग) की ही रुचि है तो फिर भगवान हमें मुक्ति कैसे देंगे ? इस प्रकार यदि हम सुख-दुःख का उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे तो हम सुख-दुःख से ऊँचे उठ जायेंगे और महान आनन्द का अनुभव कर लेंगे। अब तक देह-देही का जो विवेचन हुआ है – उसी को भगवान दूसरे शब्दों से आगे के तीन श्लोकों में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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