सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥2.16॥
न–नहीं; असतः-अस्थायी ; विद्यते-वहां है; भावः-सत्ता है; न -कभी नहीं; अभावः-अन्त; विद्यते-वहाँ है; सतः-शाश्वत का; अभयोः-दोनों का; अपि-भी; दृष्ट:-देखा गया; अन्तः-निष्कर्ष; तु–निस्सन्देह; अनयोः-इनका; तत्त्व-सत्य के; दर्शिभिः-तत्त्वदर्शियों द्वारा।
अनित्य शरीर का चिरस्थायित्व नहीं है और शाश्वत आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। तत्त्वदर्शियों द्वारा भी इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन करने के पश्चात निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर इस यथार्थ की पुष्टि की गई है।।२.16।।
‘नासतो विद्यते भावः’ – शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था , मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत ,भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों में कभी भावरूप से नहीं रहता। अतः यह असत है। इसी तरह से इस संसार का भी भाव नहीं है यह भी असत है। यह शरीर तो संसार का एक छोटा सा नमूना है । इसलिये शरीर के परिवर्तन से संसारमात्र के परिवर्तन का अनुभव होता है कि इस संसार का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है। संसारमात्र कालरूपी अग्नि में लकड़ी की तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ी के जलने पर तो कोयला और राख बची रहती है पर संसार को कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीति से जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसार का अभाव ही अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत की सत्ता नहीं है। ‘नाभावो विद्यते सतः’ जो सत वस्तु है उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी देही था , देह नष्ट होने पर भी देही रहेगा और वर्तमान में देह के परिवर्तनशील होने पर भी देही उसमें ज्यों का त्यों ही रहता है। इसी रीति से जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय भी परमात्मतत्त्व था ,संसार का अभाव होने पर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमान में संसार के परिवर्तनशील होने पर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों का त्यों ही है। मार्मिक बात- संसार को हम एक ही बार देख सकते हैं दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी दूसरे क्षण में वह वैसी नहीं रहती – जैसे सिनेमा देखते समय परदे पर दृश्य स्थिर दिखता है पर वास्तव में उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीन पर फिल्म तेजी से घूमने के कारण वह परिवर्तन इतनी तेजी से होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1) । इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तव में संसार एक बार भी नहीं दिखता। कारण कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जिन करणों से हम संसार को देखते हैं , अनुभव करते हैं – वे करण भी संसार के ही हैं। अतः वास्तव में संसार से ही संसार दिखता है। जो शरीरसंसार से सर्वथा सम्बन्ध-रहित है उस स्वरूप से संसार कभी दिखता ही नहीं । तात्पर्य यह है कि स्वरूप में संसार की प्रतीति नहीं है। संसार के सम्बन्ध से ही संसार की प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूप का संसार से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। दूसरी बात संसार (शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि) की सहायता के बिना चेतनस्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसार में ही है स्वरूप में नहीं। स्वरूप का क्रिया से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। संसार का स्वरूप है क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूप का न तो क्रिया से और न पदार्थ से ही कोई सम्बन्ध है , तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि सहित सम्पूर्ण संसार का अभाव है। केवल परमात्मतत्त्व का ही भाव (सत्ता) है जो निर्लिप्तरूप से सबका प्रकाशक और आधार है। ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ इन दोनों के अर्थात् सत – असत , देही-देह के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों ने इनका तत्त्व देखा है , इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत् – तत्व ही विद्यमान है। असत् वस्तु का तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तु का तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनों का तत्त्व एक सत् ही है । दोनों का तत्त्व भावरूप से एक ही है। अतः सत और असत इन दोनों के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों के द्वारा जानने में आने वाला एक सत्तत्त्व ही है। असत की जो सत्ता प्रतीत होती है वह सत्ता भी वास्तव में सत की ही है। सत की सत्ता से ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत को परा प्रकृति (गीता 7। 5) , क्षेत्रज्ञ (गीता 13। 12) , पुरुष (गीता 13। 19) और अक्षर (गीता 15। 16) कहा गया है तथा असत् को अपरा प्रकृति , क्षेत्र , प्रकृति और क्षर कहा गया है। अर्जुन भी शरीरों को लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करने से ये सब मर जायँगे। इस पर भगवान कहते हैं कि क्या युद्ध न करने से ये नहीं मरेंगे ? असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है परन्तु इसमें जो सत्रूप से है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है। 11वें श्लोक में आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं उन दोनों के लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। 12वें – 13वें श्लोकों में देही की नित्यता का वर्णन है – उसमें ‘धीर’ शब्द आया है। 14वें-15वें श्लोकों में संसार की अनित्यता का वर्णन आया है तो उसमें भी ‘धीर’ शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (16वें श्लोक में) सत् – असत का विवेचन आया है तो इसमें तत्त्वदर्शी (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकों में पण्डित ‘धीर’ और ‘तत्त्वदर्शी’ पद देने का तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं , समझदार होते हैं उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है तो वे विवेकी नहीं हैं , समझदार नहीं हैं। सत् और असत् क्या है ? इसको आगे के दो श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी