सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥2.18॥
अन्तवन्त–नष्ट होने वाला; इमे-ये; देहाः-भौतिक शरीर; नित्यस्य-शाश्वत; उक्ताः-कहा गया है; शरीरिणः-देहधारी आत्मा का; अनाशिन:-अविनाशी; अप्रमेयस्य–अपरिमेय अर्थात जिसे मापा जा सका; तस्मात्-इसलिए; युध्यस्व युद्ध करो; भारत-भरतवंशी अर्जुन।
केवल भौतिक शरीर ही नश्वर है और शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी, अपरिमेय तथा शाश्वत है। अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो।
‘अनाशिनः’ किसी काल में , किसी कारण से कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता जिसकी क्षति नहीं होती जिसका अभाव नहीं होता उसका नाम ‘अनाशी’ अर्थात् अविनाशी है। ‘अप्रमेयस्य’ जो प्रमा (प्रमाण )का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियों का विषय नहीं है उसको ‘अप्रमेय’ कहते हैं। जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं । शास्त्र और सन्तमहापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्त में श्रद्धा होती है वह उसी शास्त्र और सन्त के वचनों को मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धा का विषय है (टिप्पणी प0 58.1) प्रमाण का विषय नहीं। शास्त्र और सन्त किसी को बाध्य नहीं करते कि तुम हमारे में श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करने में मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्त के वचनों में श्रद्धा करेगा तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय है और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय नहीं है। ‘नित्यस्य’ यह नित्य-निरन्तर रहने वाला है। किसी काल में यह न रहता हो – ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब काल में सदा ही रहता है। ‘अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः’ – इस अविनाशी अप्रमेय और नित्य शरीरी के सम्पूर्ण संसार में जितने भी शरीर हैं वे सभी अन्त वाले कहे गये हैं। अन्त वाले कहने का तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्त के सिवाय और कुछ है ही नहीं , केवल अन्त ही अन्त है। उपर्युक्त पदों में शरीरी के लिये तो एकवचन दिया है और शरीरों के लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणी के स्थूल , सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसार के सम्पूर्ण शरीरों में एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे 24वें श्लोक में भी इसको ‘सर्वगतः’ पद से सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जाने वाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान हैं। जैसे अविनाशी का कोई विनाश नहीं कर सकता – ऐसे ही नाशवान को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा। विशेष बात – यहाँ ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ कहने का तात्पर्य है कि ये जो देह देखने में आते हैं ये सब के सब नाशवान हैं। पर ये देह किसके हैं ‘नित्यस्य अनाशिनः’ – ये देह नित्य के हैं , अविनाशी के हैं। तात्पर्य है कि नित्य तत्त्व ने जिसका कभी नाश नहीं होता इनको अपना मान रखा है। अपना मानने का अर्थ है कि अपने को शरीर में रख दिया और शरीर को अपने में रख लिया। अपने को शरीर में रखने से अहंता अर्थात् मैंपन पैदा हो गया और शरीर को अपने में रखने से ममता अर्थात् मेरापन पैदा हो गया। यह स्वयं जिन-जिन चीजों में अपने को रखता चला जाता है उन-उन चीजों में मैंपन होता ही चला जाता है – जैसे अपने को धन में रख दिया तो मैं धनी हूँ , अपने को राज्य में रख दिया तो मैं राजा हूँ , अपनेको विद्यामें रख दिया तो मैं विद्वान हूँ , अपने को बुद्धि में रख दिया तो मैं बुद्धिमान हूँ , अपने को सिद्धियों में रख दिया तो मैं सिद्ध हूँ , अपने को शरीर में रख दिया तो मैं शरीर हूँ आदि आदि। यह स्वयं जिन-जिन चीजों को अपने में रखता चला जाता है उन-उन चीजों में मेरापन होता ही चला जाता है – जैसे कुटुम्ब को अपने में रख लिया तो कुटुम्ब मेरा है ,धन को अपने में रख लिया तो धन मेरा है , बुद्धि को अपने में रख लिया तो बुद्धि मेरी है , शरीर को अपने में रख लिया तो शरीर मेरा है आदि आदि। जडता के साथ मैं और मेरापन होने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) दोनों अलग-अलग हैं । इस विवेक को महत्त्व न देने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं परन्तु जो इस विवेक को आदर देते हैं , महत्व देते हैं – वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते क्योंकि ‘सत्’ सत् ही है और ‘असत्’ असत् ही है – इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। ‘तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व’ भगवान अर्जुन के लिये आज्ञा देते हैं कि सत – असत को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्य का पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्त वाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों शरीर-शरीरी की दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोक का त्याग करके युद्ध करो। विशेष बात – यहाँ 17वें और 18वें इन दोनों श्लोकों में विशेषता से सत्तत्त्व का ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरण में भगवान का लक्ष्य सत का बोध कराने में ही है। सत का बोध हो जाने से असत की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकार का किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्य का पालन करना चाहिये। इस विवेचन से यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोग में किसी विशेष वर्ण और आश्रम की आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याण के लिये चाहे सांख्ययोग का अनुष्ठान करे चाहे कर्मयोग का अनुष्ठान करे इसमें मनुष्य की पूर्ण स्वतन्त्रता है परन्तु व्यावहारिक काम करने में वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रीय विधान की परम आवश्यकता है तभी तो यहाँ सांख्ययोग के अनुसार सत – असत का विवेचन करते हुए भगवान युद्ध करने की अर्थात् कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं। आगे 13वें अध्याय में जहाँ ज्ञान के साधनों का वर्णन किया गया है वहाँ भी ‘असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु’ (13। 9) कहकर पुत्र , स्त्री , घर आदि की आसक्ति का निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोग के अधिकारी होते तो पुत्र , स्त्री , घर आदि में आसक्तिरहित होनेके लिये कहने की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि संन्यासी के पुत्र , स्त्री आदि होते ही नहीं। इस तरह गीता पर विचार करने से सांख्ययोग एवं कर्मयोग दोनों परमात्मप्राप्ति के स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रम पर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं। पूर्वश्लोक तक शरीरी को अविनाशी जानने वालों की बात कही। अब उसी बात को अन्वय और व्यतिरेकरीति से दृढ़ करने के लिये जो शरीरी को अविनाशी नहीं जानते उनकी बात आगे के श्लोक में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी