अथ द्वितीयोऽध्यायः ~ सांख्ययोग
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
संजय उवाच
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥2.1॥
संजयः उवाच;-संजय ने कहा; तम्-उसे, अर्जुन को; कृपया-करुणा के साथ; आविष्टम–अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आसुओं से भरे; आकुल-निराश; ईक्षणम्-नेत्र; विषीदन्तम्-शोकाकुल; इदम्-ये; वाक्यम्-शब्द; उवाच-कहा;
संजय ने कहा-करुणा से अभिभूत, मन से शोकाकुल और अश्रुओं से भरे नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर श्रीकृष्ण ने निम्नवर्णित शब्द कहे।।2.1।।
‘तं तथा कृपयाविष्टम्’ – अर्जुन रथ में सारथिरूप से बैठे हुए भगवान को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्ध में मेरे साथ दो हाथ करने वाले कौन हैं ? अर्थात् मेरे जैसे शूरवीर के साथ कौन-कौन से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं ? अपनी मौत सामने दिखते हुए भी मेरे साथ लड़ने की उनकी हिम्मत कैसे हुई ? इस प्रकार जिस अर्जुन में युद्ध के लिये इतना उत्साह था , वीरता थी – वे ही अर्जुन दोनों सेनाओं में अपने कुटुम्बियों को देखकर उनके मरने की आशंका से मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है , मुख सूख रहा है , शरीर में कँपकँपी आ रही है , रोंगटे खड़े हो रहे हैं , हाथ से धनुष गिर रहा है , त्वचा जल रही है , खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुन का यह स्वभाव कि ‘न दैन्यं न पलायनम्’ और कहाँ अर्जुन का कायरता के दोष से शोकाविष्ट होकर रथ के मध्यभाग में बैठ जाना । बड़े आश्चर्य के साथ सञ्जय यही भाव उपर्युक्त पदों से प्रकट कर रहे हैं। पहले अध्याय के 28वें श्लोक में भी सञ्जय ने अर्जुन के लिये ‘कृपया परयाविष्टः’ पदों का प्रयोग किया है। ‘अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्’ अर्जुन जैसे महान शूरवीर के भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रों में आँसू भर आये । आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रों से पूरी तरह देख भी नहीं सकते। ‘विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः’ इस प्रकार कायरता के कारण विषाद करते हुए अर्जुन से भगवान मधुसूदन ने ये (आगे दूसरे , तीसरे श्लोकों में कहे जाने वाले ) वचन कहे। यहाँ ‘विषीदन्तमुवाच’ कहने से ही काम चल सकता था । ‘इदं वाक्यम्’ कहने की जरूरत ही नहीं थी क्योंकि ‘उवाच’ क्रिया के अन्तर्गत ही ‘वाक्यम्’ पद आ जाता है। फिर भी ‘वाक्यम्’ पद कहने का तात्पर्य है कि भगवान का यह वचन , यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुन में धर्म का बाना पहनकर जो कर्तव्यत्यागरूप बुराई आ गयी थी उस पर यह भगवद् वाणी सीधा आघात पहुँचाने वाली है। अर्जुन का युद्ध से उपराम होने का जो निर्णय था उसमें खलबली मचा देने वाली है। अर्जुन को अपने दोष का ज्ञान करा कर अपने कल्याण की जिज्ञासा जाग्रत करा देने वाली है। इस गम्भीर अर्थ वाली वाणी के प्रभाव से ही अर्जुन भगवान का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (2। 7)। सञ्जय के द्वारा ‘मधुसूदनः’ पद कहने का तात्पर्य है कि भगवान श्रीकृष्ण मधु नामक दैत्य को मारने वाले अर्थात् दुष्ट स्वभाव वालों का संहार करने वाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाव वाले दुर्योधनादि का नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं। भगवान ने अर्जुन के प्रति कौन से वचन कहे ? इसे आगे के दो श्लोकों में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी