सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥2.20॥
न-जायते —जन्म नहीं लेता; म्रियते-मरता है; वा-या; कदाचित् किसी काल में भी; न -कभी नहीं; अयम् -यह; भूत्वा होकर; भविता-होना; वा–अथवा; न -कहीं; भूयः-आगे होने वाला; अजः-अजन्मा; नित्यः-सनातन; शाश्वतः-स्थायी; अयम्-यह; पुराणः-सबसे प्राचीन; न-नहीं; हन्यते-अविनाशी; हन्यमाने – नष्ट होना; शरीरे-शरीर में।
आत्मा का न तो कभी जन्म होता है न ही मृत्यु होती है और न ही आत्मा किसी काल में जन्म लेती है और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, अविनाशी और चिरनूतन है। शरीर का विनाश होने पर भी इसका विनाश नहीं होता।
शरीर में छः विकार होते हैं । उत्पन्न होना सत्ता वाला दिखना , बदलना , बढ़ना , घटना और नष्ट होना (टिप्पणी प0 60.1) । यह शरीरी इन छहों विकारों से रहित है । यही बात भगवान इस श्लोक में बता रहे हैं (टिप्पणी प0 60.2) । ‘न जायते म्रियते वा कदाचिन्न’ जैसे शरीर उत्पन्न होता है , ऐसे यह शरीरी कभी भी किसी भी समय में उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदा से ही है। भगवान ने इस शरीरी को अपना अंश बताते हुए इसको सनातन कहा है – ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (15। 7)। यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है जो पैदा होता है और ‘म्रियते’ का प्रयोग भी वहीं होता है जहाँ पिण्डप्राण का वियोग होता है। पिण्डप्राण का वियोग शरीर में होता है परन्तु शरीरी में संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों का त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं। सभी विकारों में जन्मना और मरना ये दो विकार ही मुख्य हैं । अतः भगवान ने इनका दो बार निषेध किया है जिसको पहले ‘न जायते’ कहा उसी को दुबारा ‘अजः’ कहा है और जिसको पहले ‘न म्रियते’ कहा उसी को दुबारा ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ कहा है। ‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’ यह अविनाशी नित्य तत्त्व पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है अर्थात् यह स्वतः सिद्ध निर्विकार है। जैसे बच्चा पैदा होता है तो पैदा होने के बाद उसकी सत्ता होती है। जब तक वह गर्भ में नहीं आता तब तक बच्चा है । ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चे की सत्ता पैदा होने के बाद होती है क्योंकि उस विकारी सत्ता का आदि और अन्त होता है परन्तु इस नित्यतत्त्व की सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है क्योंकि इस अविकारी सत्ता का आरम्भ और अन्त नहीं होता। ‘अजः’ इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिये यह ‘अजः’ अर्थात् जन्मरहित कहा गया है। ‘नित्यः’ यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहने वाला है अतः इसका कभी अप-क्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तु में होता है जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे आधी उम्र बीतने पर शरीर घटने लगता है , बल क्षीण होने लगता है , इन्द्रियों की शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण आदि का तो अपक्षय होता है पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। इस नित्य तत्त्व में कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती। ‘शाश्वतः’ – यह नित्य तत्त्व निरन्तर एकरूप , एकरस रहने वाला है। इसमें अवस्था का परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलने की योग्यता है ही नहीं। ‘पुराणः’ यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है वह फिर बढ़ती नहीं बल्कि नष्ट हो जाती है फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है । इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है ? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में ही होता है , इस नित्यतत्त्व में नहीं। ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे ‘ शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता। यहाँ ‘शरीरे’ पद देने का तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होने वाला है। इस नष्ट होने वाले शरीर में ही छः विकार होते हैं शरीरी में नहीं। इन पदों में भगवान ने शरीर और शरीरी का जैसा स्पष्ट वर्णन किया है – ऐसा स्पष्ट वर्णन गीता में दूसरी जगह नहीं आया है। अर्जुन युद्ध में कुटुम्बियों के मरने की आशंका से विशेष शोक कर रहे थे। उस शोक को दूर करने के लिये भगवान कहते हैं कि शरीर के मरने पर भी इस शरीरी का मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है। 19वें श्लोक में भगवान ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है। इसमें मरने का निषेध तो 20वें श्लोक में कर दिया अब मारने का निषेध करने के लिये आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी