सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥2.21॥
वेद-जानता है; अवनाशिनम्-अविनाशी को; नित्यम्-शाश्वत; यः-वह जो; एनम्-इस; अजम्-अजन्मा; अव्यम्-अपरिवर्तनीय; कथम्-कैसे; सः-वह; पुरुषः-पुरुषः पार्थ-पार्थ; कम्-किसको; घातयति–मारने का कारण; हन्ति – मारता है; कम्-किसको।
हे पार्थ! वह जो यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अपरिवर्तनीय है, वह किसी को कैसे मार सकता है या किसी की मृत्यु का कारण हो सकता है? 2.21
‘वेदाविनाशिनम् ৷৷. घातयति हन्ति कम्’- इस शरीरी का कभी नाश नहीं होता । इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं आती । ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है वह पुरुष कैसे , किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ? अर्थात् दूसरों को मारने और मरवाने में उस पुरुष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रिया का न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है। यहाँ भगवान ने शरीरी को अविनाशी , नित्य , अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारों का निषेध किया है । जैसे ‘अविनाशी’ कहकर मृत्युरूप विकार का ‘नित्य’ कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकार का ‘अज’ कहकर जन्म होना और जन्म के बाद होने वाली सत्तारूप विकार का तथा ‘अव्यय’ कहकर क्षयरूप विकार का निषेध किया गया है। शरीरी में किसी भी क्रिया से किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता। अगर भगवान को ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ और ‘कं घातयति हन्ति कम्’ इन पदों में शरीरी के कर्ता और कर्म बनने का ही निषेध करना था तो फिर यहाँ करने न करने की बात न कहकर मरने मारने की बात क्यों कही ? इसका उत्तर है कि युद्ध का प्रसङ्ग होने से यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्ध में मारने वाला नहीं बनता क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारने वाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता तब यह मरने वाला अर्थात् क्रिया का विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है ? तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रिया का कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने मारने में शोक नहीं करना चाहिये बल्कि शास्त्र की आज्ञा के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म का पालन करना चाहिये। पूर्वश्लोकों में देही की निर्विकारता का जो वर्णन हुआ है आगे के श्लोक में उसी का दृष्टान्तरूप से वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी