सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥
न–नहीं; एनम्-इस आत्मा को; छिन्दन्ति-टुकड़े टुकड़े; शस्त्राणि-शस्त्र द्वारा; न-नहीं; एनम्-इस आत्मा को; दहति–जला सकता है; पावक:-अग्नि; न -कभी नहीं; च-और; एनम्-इस आत्मा को; क्लेदयन्ति–भिगोया जा सकता है; आपः-जल; न -कभी नहीं; शोषयति-सुखाया जा सकता है; मारूतः-वायु।
किसी भी शस्त्र द्वारा आत्मा के टुकड़े नहीं किए जा सकते, न ही अग्नि आत्मा को जला सकती है, न ही जल द्वारा उसे गीला किया जा सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है॥2.23॥
‘नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि’ इस शरीरी को शस्त्र नहीं काट सकते क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते। जितने भी शस्त्र हैं वे सभी पृथ्वी तत्त्व से उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह का कोई विकार नहीं पैदा कर सकता। इतना ही नहीं पृथ्वीतत्त्व इस शरीरी तक पहुँच ही नहीं सकता फिर विकृति करने की बात तो दूर ही रही । ‘नैनं दहति पावकः’ – अग्नि इस शरीरी को जला नहीं सकती क्योंकि अग्नि वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती तब उसके द्वारा जलाना कैसे सम्भव हो सकता है ? तात्पर्य है कि अग्नितत्त्व इस शरीरी में कभी किसी तरह का विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता। ‘न चैनं क्लेदयन्त्यापः’ – जल इसको गीला नहीं कर सकता क्योंकि जल वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल तत्त्व इस शरीरी में किसी प्रकार का विकार पैदा नहीं कर सकता। ‘न शोषयति मारुतः’ – वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायु में इस शरीरी को सुखाने की सामर्थ्य नहीं है क्योंकि वायु वहाँ तक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायुतत्त्व इस शरीरी में किसी तरह की विकृति पैदा नहीं कर सकता। पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान ने इनमें से चार ही महाभूतों की बात कही है कि ये पृथ्वी , जल , तेज और वायु इस शरीरी में किसी तरह की विकृति नहीं कर सकते परन्तु 5वें महाभूत आकाश की कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाश में कोई भी क्रिया करने की शक्ति नहीं है। क्रिया (विकृति) करने की शक्ति तो इन चार महाभूतों में ही है। आकाश तो इन सबको अवकाशमात्र देता है। पृथ्वी , जल , तेज और वायु ये चारों तत्त्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं पर वे अपने कारणभूत आकाश में भी किसी तरह का विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात् पृथ्वी आकाश का छेदन नहीं कर सकती , जल गीला नहीं कर सकता , अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाश को , आकाश के कारणभूत महत्तत्त्व को और महत्तत्त्व के कारणभूत प्रकृति को भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते तब प्रकृति से सर्वथा अतीत शरीरी तक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं ? इन गुणयुक्त पदार्थों की उस निर्गुणतत्त्व में पहुँच ही कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती (गीता 13। 31)।शरीरी नित्यतत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वों को इसी से सत्तास्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वों को सत्तास्फूर्ति मिलती है उसको ये कैसे विकृत कर सकते है ? यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य हैं अर्थात् शरीरी के अन्तर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापक को कैसे नुकसान पहुँचा सकती है ? उसको नुकसान पहुँचाना सम्भव ही नहीं है। यहाँ युद्ध का प्रसङ्ग है। ये सब सम्बन्धी मर जायँगे – इस बात को लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान कहते हैं कि ये कैसे मर जायँगे ? क्योंकि वहाँ तक अस्त्र-शस्त्रों की क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात् शस्त्र के द्वारा शरीर कट जाने पर भी शरीरी नहीं कटता , अग्न्यस्त्र के द्वारा शरीर जल जाने पर शरीरी नहीं जलता , वरुणास्त्र के द्वारा शरीर गल जाने पर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्र के द्वारा शरीर सूख जाने पर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा शरीर मर जाने पर भी शरीरी नहीं मरता बल्कि ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।