सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥2.25॥
अव्यक्त:- अदृश्य ; अयम्-यह आत्मा; अचिन्त्यः-अकल्पनीयः अयम्-यह आत्मा; अविकार्य:-अपरिवर्तित; अयम्-यह आत्मा; उच्यते-कहलाता है; तस्मात्- इसलिए; एवम्-इस प्रकार; विदित्वा-जानकर; एनम् -इस आत्मा में; न-नहीं; अनुशोचितुम्–शोक करना; अर्हसि -उचित।
इस आत्मा को अदृश्य, अचिंतनीय और अपरिवर्तनशील कहा गया है। यह जानकर हमें शरीर के लिए शोक प्रकट नहीं करना चाहिए॥2.25॥
‘अव्यक्तोऽयम्’ – जैसे शरीरसंसार स्थूलरूप से देखने में आता है वैसे यह शरीरी स्थूलरूप से देखने में आने वाला नहीं है क्योंकि यह स्थूल सृष्टि से रहित है। ‘अचिन्त्योऽयम्’ – मन , बुद्धि आदि देखने में तो नहीं आते पर चिन्तन में आते ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तन के विषय हैं परन्तु यह देही चिन्तन का भी विषय नहीं है क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टि से रहित है। ‘अविकार्योऽयमुच्यते’ यह देही विकाररहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है उस कारणभूत प्रकृति में भी विकृति होती है परन्तु इस देही में किसी प्रकार की विकृति नहीं होती क्योंकि यह कारण सृष्टि से रहित है। यहाँ 24वें – 25वें श्लोकों में अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य , अशोष्य , अचल , अव्यक्त , अचिन्त्य और अविकार्य इन आठ विशेषणों के द्वारा इस देही का निषेध-मुख से और नित्य , सर्वगत , स्थाणु और सनातन इन चार विशेषणों के द्वारा इस देही का विधि-मुख से वर्णन किया गया है परन्तु वास्तव में इसका वर्णन हो नहीं सकता क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं उस देही को वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं ? अतः इस देही का ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है। ‘तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि’ इसलिये इस देही को अच्छेद्य , अशोष्य , नित्य , सनातन , अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता। अगर शरीरी को निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाय (जो कि सिद्धान्त से विरुद्ध है ) तो भी शोक नहीं हो सकता । यह बात आगे के दो श्लोकों में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी