सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.27॥
जातस्य-वह जो जन्म लेता है; हि-के लिए; ध्रुवः-निश्चय ही; मृत्युः-मृत्युः ध्रुवम् निश्चित है; जन्म-जन्म; मृतस्य-मृत प्राणी का; च-भी; तस्मात्-इसलिए; अपरिहार्य-अर्थे-अपरिहार्य स्थिति मे, बिना उपाय वाले विषय में; न-नहीं; त्वम्-तुम; शोचितुम्–शोक करना; अर्हसि -योग्य ,उचित।
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें अपरिहार्य के लिए ( इस बिना उपाय वाले विषय में ) शोक करना योग्य नहीं है॥2.27॥
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च – पूर्वश्लोक के अनुसार अगर शरीरी को नित्य जन्मने और मरने वाला भी मान लिया जाय तो भी वह शोक का विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है वह जरूर मरेगा और जो मर गया है वह जरूर जन्मेगा। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि – इसलिये कोई भी इस जन्ममृत्युरूप प्रवाह का परिहार (निवारण) नहीं कर सकता क्योंकि इसमें किसी का किञ्चिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्ममृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस दृष्टि से तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में हैं तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायेंगे वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बात का ? ‘शोक उसी का कीजिये जो अनहोनी होय। अनहोनी होती नहीं होनी है सो होय।।’ जैसे इस बात को सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिये मनुष्य सूर्य का अस्त होने पर शोक-चिन्ता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीर के साथ ये भीष्म , द्रोण आदि सभी मर जायँगे तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जायँगे। अतः इस दृष्टि से भी शोक नहीं हो सकता। भगवान ने इन दो (26वें-27वें) श्लोकों में जो बात कही है वह भगवान का कोई वास्तविक सिद्धान्त नहीं है। अतः ‘अथ च’ पद देकर भगवान ने दूसरे (शरीर-शरीरी को एक मानने वाले) पक्ष की बात कही है कि ऐसा सिद्धान्त तो है नहीं पर अगर तू ऐसा भी मान ले तो भी शोक करना उचित नहीं है। इन दो श्लोकों का तात्पर्य यह हुआ कि संसार की मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से पहले रूप को छोड़कर दूसरे रूप को धारण करती रहती हैं। इसमें पहले रूप को छोड़ना – यह मरना हो गया और दूसरे रूपको धारण करना – यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है वह फिर जन्मता है – यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टि से भी क्या शोक करें ? पीछे के दो श्लोकों में पक्षान्तर की बात कहकर अब भगवान आगे के श्लोक में बिलकुल साधारण दृष्टि की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी