सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥2.28॥
अव्यक्त-आदीनि-जन्म से पूर्व अप्रकट; भूतानि-सभी जीव; व्यक्त–प्रकट; मध्यानि-मध्य में; भारत-भरतवंशी, अर्जुन; अव्यक्त–अप्रकट; निधानानि–मृत्यु होने पर; एव–वास्तव में; तत्र-अतः; का-क्या; परिदेवना-शोक।
हे भरतवंशी! समस्त जीव जन्म से पूर्व अव्यक्त रहते हैं, जन्म होने पर व्यक्त हो जाते हैं और मृत्यु होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः ऐसे में शोक व्यक्त करने की क्या आवश्यकता है॥2.28॥
‘अव्यक्तादीनि भूतानि’ देखने , सुनने और समझने में आने वाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं , वे सब के सब जन्म से पहले अप्रकट थे अर्थात् दिखते नहीं थे। ‘अव्यक्तनिधनान्येव’ ये सभी प्राणी मरने के बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होने पर ये सभी नहीं में चले जायँगे , दिखेंगे नहीं। ‘व्यक्तमध्यानि’ ये सभी प्राणी बीच में अर्थात् जन्म के बाद और मृत्यु के पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोने से पहले भी स्वप्न नहीं था और जगने पर भी स्वप्न नहीं रहा । ऐसे ही इन प्राणियों के शरीरों का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा परन्तु बीच में भावरूप से दिखते हुए भी वास्तव में इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। ‘तत्र का परिदेवना’ जो आदि और अन्त में नहीं होता वह बीच में भी नहीं होता है , यह सिद्धान्त है (टिप्पणी प0 68) । सभी प्राणियों के शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे । अतः वास्तव में वे बीच में भी नहीं हैं परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा । अतः वह बीच में भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरों का सदा अभाव है और शरीरी का कभी भी अभाव नहीं है। इसलिये इन दोनों के लिये शोक नहीं हो सकता। अब भगवान शरीरी की अलौकिकता का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी