The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥2.29॥

 

आश्चर्यवत्-आश्चर्य के रूप में; पश्यति-देखता है; कश्चित्-कोई; एनम् – इस आत्मा को; आश्चर्यवत्-आश्चर्य के समान; वदति-कहता है; तथा- जिस प्रकार; एव–वास्तव में; च-भी; अन्यः-दूसरा; आश्चर्यवत्-आश्चर्यः च-और; एनम्-इस आत्मा को; अन्यः-दूसरा; शृणोति-सुनता है; श्रृत्वा-सुनकर; अपि-भी; एनम्-इस आत्मा को; वेद-जानता है; न -कभी नहीं; च-तथा; एव-नि:संदेह; कश्चित्-कुछ।

 

कुछ लोग आत्मा को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं, कुछ लोग इसे आश्चर्य बताते हैं और कुछ इसे आश्चर्य के रूप मे सुनते हैं जबकि अन्य लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ समझ नहीं पाते॥2.29॥

 

‘आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्’ इस देही को कोई आश्चर्य की तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने , सुनने , पढ़ने और जानने में आती हैं वैसे इस देही का जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ ‘इदंता’ से ( यह करके) जानते हैं अर्थात् वे जानने का विषय होती हैं पर यह देही इन्द्रिय , मन-बुद्धि का विषय नहीं है। इसको तो स्वयं से , अपने-आप से ही जाना जाता है। अपने आप से जो जानना होता है , वह जानना लौकिक ज्ञान की तरह नहीं होता बल्कि बहुत विलक्षण होता है। ‘पश्यति’ पद के दो अर्थ होते हैं – नेत्रों से देखना और स्वयं के द्वारा स्वयं को जानना। यहाँ ‘पश्यति’ पद स्वयं के द्वारा स्वयं को जानने के विषय में आया है (गीता 2। 55 6। 20 आदि)। जहाँ नेत्र आदि करणों से देखना (जानना ) होता है वहाँ द्रष्टा (देखने वाला) , दृश्य ( दिखने वाली वस्तु ) और दर्शन (देखने की शक्ति) यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटी से ही सांसारिक देखना-जानना होता है परन्तु स्वयं के ज्ञान में यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयं का ज्ञान करण-सापेक्ष नहीं है। स्वयं का ज्ञान तो स्वयं के द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करण-निरपेक्ष है। जैसे मैं हूँ – ऐसा जो अपने होनेपन का ज्ञान है – इसमें किसी प्रमाण की या किसी करण की आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपन को ‘इदंता से’ अर्थात् दृश्यरूप से नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपने आपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयं को (अपने आपको) जानना आश्चर्य की तरह होता है। जैसे अँधेरे कमरे में हम किसी चीज को लाने जाते हैं तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरे में प्रकाश की सहायता से हम उस चीज को नेत्रों से देखेंगे तब उसको लायेंगे परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपक को देखने जायँगे तो उस दीपक को देखने के लिये हमें दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि दीपक स्वयं-प्रकाश है। वह अपने आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूप को देखने के लिये किसी दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयं-प्रकाश है। अतः यह अपने आप से ही अपने आप को जानता है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर हैं। अन्न-जल से बना हुआ स्थूल-शरीर है। यह स्थूल-शरीर इन्द्रियों का विषय है। इस स्थूल-शरीर के भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों , पाँच कर्मेन्द्रियाँ , पाँच प्राण , मन और बुद्धि इन 17 तत्त्वों से बना हुआ सूक्ष्म-शरीर है। यह सूक्ष्म-शरीर इन्द्रियों का विषय नहीं है बल्कि बुद्धि का विषय हैं। जो बुद्धि का भी विषय नहीं है जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है वह कारण-शरीर है। इन तीनों शरीरों पर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जानने में आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जानने में आता है । अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है पर देही (स्वरूप ) प्रकृति से भी अतीत है । अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृति को छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है तब यह अपने आप से अपने आपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओं को जानने की अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है इसलिये इसको ‘आश्चर्यवत् पश्यति ‘ कहा गया है। यहाँ भगवान ने कहा है कि अपने आप का अनुभव करने वाला कोई एक ही होता है । ‘कश्चित्’ और आगे सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरे को तत्त्व से जानता है – ‘कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः’।  इन पदों से ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्व को जानना बड़ा कठिन है , दुर्लभ है परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्व को जानना कठिन नहीं है , दुर्लभ नहीं है बल्कि इस तत्त्व को सच्चे हृदय से जानने वाले की इस तरफ लगने वाले की कमी है। यह कमी जानने की जिज्ञासा कम होने के कारण ही है। ‘आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः’ ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देही  का आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है क्योंकि यह तत्त्व वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है ? जो महापुरुष इस तत्त्व का वर्णन करता है , वह तो शाखाचन्द्रन्याय की तरह वाणी से इसका केवल संकेत ही करता है जिससे सुनने वाले का इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्य की तरह ही होता है। यहाँ जो ‘अन्यः’ पद आया है , उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जानने वाला है , उससे यह कहने वाला अन्य है क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं वह वर्णन क्या करेगा ? अतः इस पद का तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सबकेसब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति   दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी लोकलोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है वह सबकासब इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिका विषय है परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है।यहाँ  अन्यः  पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है। श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्   इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा तब वह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा  (टिप्पणी प0 69) ।यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता ऐसा कैसे कहा गया है इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धाविश्वास करता है स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं बड़ेबड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धाविश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं प्रत्युत उसे करणनिरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपनेआपसे) ही होता है।अपनेआपसे अपनेआपको जानना क्या होता है एक होता है करना एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है।ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता प्रत्युत देखना होता है जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है वह दो तरहका होता है एक तो शरीरसंसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है। सम्बन्ध   अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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