सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥2.32॥
यदृच्छया-बिना इच्छा के; च-भी; उपपन्नम्-प्राप्त होना; स्वर्ग-स्वर्गलोक का; द्वारम्-द्वार; अपावृतम्-खुल जाता है; सुखिनः-सुखी, भाग्यशाली; क्षत्रियाः -योद्धा; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; लभन्ते–प्राप्त करते हैं; युद्धम् -युद्ध को; ईदृशम् -इस प्रकार।
हे पार्थ! वे क्षत्रिय भाग्यशाली होते हैं जिन्हें बिना इच्छा किए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध के ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं जिसके कारण उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। अर्थात अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्गका दरवाजा है। वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है ।।2.32।।
‘यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्’ पाण्डवों से जुआ खेलने में दुर्योधन ने यह शर्त रखी थी कि अगर इसमें आप हार जायँगे तो आपको बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। तेरहवें वर्ष के बाद आपको अपना राज्य मिल जायगा परन्तु अज्ञातवास में अगर हम लोग आप लोगों को खोज लेंगे तो आप लोगों को दुबारा बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा। जूए में हार जाने पर शर्त के अनुसार पाण्डवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोग लिया। उसके बाद जब उन्होंने अपना राज्य माँगा तब दुर्योधन ने कहा कि मैं बिना युद्ध किये सुई की तीखी नोक जितनी जमीन भी नहीं दूँगा। दुर्योधन के ऐसा कहने पर भी पाण्डवों की ओर से बार-बार सन्धि का प्रस्ताव रखा गया पर दुर्योधन ने पाण्डवों से सन्धि स्वीकार नहीं की। इसलिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि यह युद्ध तुम लोगों को अपने आप प्राप्त हुआ है। अपने आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्ध में जो क्षत्रिय शूरवीरता से लड़ते हुए मरता है उसके लिये स्वर्ग का दरवाजा खुला हुआ रहता है। ‘सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्’ ऐसा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं। यहाँ ‘सुखी’ कहने का तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन करने में जो सुख है वह सुख सांसारिक भोगों को भोगने में नहीं है। सांसारिक भोगों का सुख तो पशु-पक्षियों को भी होता है। अतः जिनको कर्तव्यपालन का अवसर प्राप्त हुआ है उनको बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिये। युद्ध न करनेसे क्या हानि होती है ? इसका आगे के चार श्लोकों में वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी