सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।2.33।।
अथ चेत् – यदि फिर भी; त्वम्-तुम; इमम्-इस; धर्म्यम्-संग्रामम्-धर्म युद्ध को; न-नहीं; करिष्यसि -करोगे; ततः-तब; स्वधर्मम् -वेदों के अनुसार मनुष्य के निर्धारित कर्त्तव्य; कीर्तिम्-प्रतिष्ठा; च–भी; हित्वा-खोकर; पापम्-पाप; अवाप्स्यसि–प्राप्त करोगे।
यदि फिर भी तुम इस धर्म युद्ध का सामना नहीं करना चाहते तब तुम्हें निश्चित रूप से अपने सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम अपनी प्रतिष्ठा खो दोगे।।2.33।।
‘अथ चेत्त्वमिमं ৷৷. पापमवाप्स्यसि’ यहाँ ‘अथ’ अव्यय पक्षान्तर में आया है और ‘चेत्’ अव्यय सम्भावना के अर्थ में आया है। इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्ध के बिना रह नहीं सकेगा अपने क्षात्र स्वभाव के परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही (गीता 18। 60) तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्म का त्याग हो जायगा। क्षात्रधर्म का त्याग होने से तुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्ति का भी नाश होगा। आपसे आप प्राप्त हुए धर्मरूप कर्तव्य का त्याग करके तू क्या करेगा ? अपने धर्म का त्याग करने से तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा जिससे तुझे पाप लगेगा। युद्ध का त्याग करने से दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन जैसा शूरवीर भी मरने से भयभीत हो गया इससे तेरी कीर्ति का नाश होगा – स्वामी रामसुखदास जी