सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34।।
अकीर्तिम्-अपयश; च-और; अपि-भी; भूतानि-लोगः कथयिष्यन्ति-कहेंगे; ते – तुम्हारे; अव्ययाम्-सदा के लिए; सम्भावितस्य–सम्मानित व्यक्ति के लिए; च-भी; अकीर्तिः-अपमान; मरणात्-मृत्यु की तुलना में; अतिरिच्यते-से बढ़कर होता है।
सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिका कथन करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायी होती है ।।2.34।।
‘अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्’ मनुष्य , देवता , यक्ष , राक्षस आदि जिन प्राणियों का तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता – ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति , अपयश का कथन करेंगे कि देखो ! अर्जुन कैसा भीरू था जो कि अपने क्षात्रधर्म से विमुख हो गया। वह कितना शूरवीर था पर युद्ध के मौके पर उसकी कायरता प्रकट हो गयी जिसका कि दूसरों को पता ही नहीं था आदि आदि। ‘ते’ कहने का भाव है कि स्वर्ग , मृत्यु और पाताल लोक में भी जिसकी धाक जमी हुई है – ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी। ‘अव्ययाम्’ कहने का तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्ठता को लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहने वाली होती है। ‘सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते’ इस श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने साधारण प्राणियों द्वारा अर्जुन की निन्दा किये जाने की बात बतायी। अब श्लोक के उत्तार्ध में सबके लिये लागू होने वाली सामान्य बात बताते हैं। संसार की दृष्टि में जो श्रेष्ठ माना जाता है जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्टि से देखते हैं – ऐसे मनुष्य की जब अपकीर्ति होती है तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरण से भी अधिक भयंकर , दुःखदायी होती है। कारण कि मरने में तो आयु समाप्त हुई है , उसने कोई अपराध तो किया नहीं है परन्तु अपकीर्ति होने में तो वह खुद धर्ममर्यादा से कर्तव्य से च्युत हुआ है। तात्पर्य है कि लोगों में श्रेष्ठ माना जाने वाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्य से च्युत होता है तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है।