सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।2.35।।
भयात्-भय के कारण; रणात्-युद्धभूमि से; उपरतम्-भाग जाना; मस्यन्ते-सोचेंगे; त्वाम्-तुमको; महारथा–योद्धा जो अकेले ही दस हजार साधारण योद्धाओं का सामना कर सके; येषाम–जिनकी; च-और; बहुमतः-अति सम्मानित; भूत्वा-हो कर; यास्यसि-तुम गँवा दोगे; लाघवम्-तुच्छ श्रेणी के।
जिन महारथी योद्धाओं ने तुम्हारे नाम और यश की सराहना की है, वे सब यह सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्धभूमि से भाग गये और उनकी दृष्टि में तुम अपना सम्मान गंवा दोगे।।2.35।।
‘भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः’ – तू ऐसा समझता है कि मैं तो केवल अपना कल्याण करने के लिये युद्ध से उपरत हुआ हूँ परन्तु अगर ऐसी ही बात होती और युद्ध को तू पाप समझता तो पहले ही एकान्त में रहकर भजन-स्मरण करता और तेरी युद्ध के लिये प्रवृत्ति भी नहीं होती परन्तु तू एकान्त में न रहकर युद्ध में प्रवृत्त हुआ है। अब अगर तू युद्ध से निवृत्त होगा तो बड़े-बड़े महारथी लोग ऐसा ही मानेंगे कि युद्ध में मारे जाने के भय से ही अर्जुन युद्ध से निवृत्त हुआ है। अगर वह धर्म का विचार करता तो युद्ध से निवृत्त नहीं होता क्योंकि युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः वह मरने के भय से ही युद्ध से निवृत्त हो रहा है। ‘येषाँ च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्’ भीष्म , द्रोणाचार्य , कृपाचार्य , शल्य आदि जो बड़े-बड़े महारथी है उनकी दृष्टि में तू बहुमान्य हो चुका है अर्थात् उनके मन में यह एक विश्वास है कि युद्ध करने में नामी शूरवीर तो अर्जुन ही है। वह युद्ध में अनेक दैत्यों , देवताओं , गन्धर्वों ,आदि को हरा चुका है। अगर अब तू युद्ध से निवृत्त हो जायगा तो उन महारथियों के सामने तू लघुता (तुच्छता) को प्राप्त हो जायगा अर्थात् उनकी दृष्टि में तू गिर जायगा – स्वामी रामसुखदास जी