सांख्ययोग ~ अध्याय दो
31-38 क्षत्रिय धर्म और युद्ध करने की आवश्यकता का वर्णन
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युध्दाय कृतनिश्चयः।।2.37।।
हत:-मारे जाना; वा-या तो; प्राप्स्यसि–प्राप्त करोगे; स्वर्गम्-स्वर्गलोक को; जित्वा-विजयी होकर; वा-अथवा; भोक्ष्यसे-तुम भोगोगे; महीम्-पृथ्वी लोक का सुख; तस्मात्-इसलिए; उत्तिष्ठ-उठो; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; युद्धाय-युद्ध के लिए; कृत-निश्चय–दृढ़ संकल्प;।
अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।।2.37।।
‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ – इसी अध्याय के छठे श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि हम लोगों को इसका भी पता नहीं है कि युद्ध में हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे। अर्जुन के इस सन्देह को लेकर भगवान यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्ध में तुम कर्ण आदि के द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्ग को चले जाओगे और अगर युद्ध में तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहां पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करने से तो तुम्हारा दोनों तरफ से लाभ ही लाभ है और युद्ध न करने से दोनों तरफ से हानि ही हानि है। अतः तुम्हें युद्ध में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। ‘स्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चियः’ – यहाँ ‘कौन्तेय’ सम्बोधन देने का तात्पर्य है कि जब मैं सन्धि का प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास गया था तब माता कुन्ती ने तुम्हारे लिये यही संदेश भेजा था कि तुम युद्ध करो। अतः तुम्हें युद्ध से निवृत्त नहीं होना चाहिये बल्कि युद्ध का निश्चय करके खड़े हो जाना चाहिये। अर्जुन का युद्ध न करने का निश्चय था और भगवान ने इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में युद्ध करने की आज्ञा दे दी। इससे अर्जुन के मन में सन्देह हुआ कि युद्ध करना ठीक है या न करना ठीक है। अतः यहाँ भगवान उस सन्देह को दूर करने के लिये कहते हैं कि तुम युद्ध करने का एक निश्चय कर लो , उसमें सन्देह मत रखो। यहाँ भगवान का तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि मनुष्य को किसी भी हालत में प्राप्त कर्तव्य का त्याग नहीं करना चाहिये बल्कि उत्साह और तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। कर्तव्य का पालन करने में ही मनुष्य की मनुष्यता है – स्वामी रामसुखदास जी