सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुध्दिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।
एषा-अब तक; ते -तुम्हारे लिए: अभिहिता-वर्णन किया; सांख्ये-वैश्लेषिक ज्ञान द्वारा; बुद्धिः-बुद्धि; योगे-बुद्धि योग से; तु–वास्तव में; इमाम्-इसे; शृणु-सुनो; बुद्धया -बुद्धि से; युक्तः-एकीकृत; यया -जिससे; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; कर्मबन्धाम्-कर्म के बन्धन से; प्रहास्यसि-तुम मुक्त हो जाओगे।
अब तक मैंने तुम्हें सांख्य योग या आत्मा की प्रकृति के संबंध में वैश्लेषिक ज्ञान से अवगत कराया है। अब मैं क्योंकि बुद्धियोग या ज्ञानयोग प्रकट कर रहा हूँ, हे पार्थ! उसे सुनो। जब तुम ऐसे ज्ञान के साथ कर्म करोगे तब कर्मों के बंधन से स्वयं को मुक्त कर पाओगे।।2.39।।
‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’ यहाँ ‘तु’ पद प्रकरण सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये आया है अर्थात् पहले सांख्य का प्रकरण कह दिया अब योग का प्रकरण कहते हैं। यहाँ ‘एषा’ पद पूर्वश्लोक में वर्णित समबुद्धि के लिये आया है। इस समबुद्धि का वर्णन पहले सांख्ययोग में ( 11वें से 30वें श्लोक तक) अच्छी तरह किया गया है। देह-देही का ठीक-ठीक विवेक होने पर समता में अपनी स्वतःसिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है। कारण कि देह में राग रहने से ही विषमता आती है। इस प्रकार सांख्ययोग में तो समबुद्धि का वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोग के विषय में सुन। ‘इमाम्’ कहने का तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धि को कर्मयोग के विषय में कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोग में कैसे प्राप्त होती है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसकी महिमा क्या है ? इन बातों के लिये भगवान ने इस बुद्धि को योग के विषय में सुनने के लिये कहा है। ‘बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि’ अर्जुन के मन में युद्ध करने से पाप लगने की सम्भावना थी (1। 36 45) परन्तु भगवान के मत में कर्मों में विषमबुद्धि (राग-द्वेष) होने से ही पाप लगता है। समबुद्धि होने से पाप लगता ही नहीं। जैसे संसार में पाप और पुण्य की अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात आग्रह राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धि से युक्त रहेगा तो तेरे को भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन ने अपने कल्याण की बात पूछी थी। इसलिये भगवान कल्याण के मुख्य-मुख्य साधनों का वर्णन करते हैं। पहले भगवान ने सांख्ययोग का साधन बताकर कर्तव्यकर्म करने पर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रिय के लिये धर्मरूप युद्ध से बढ़कर श्रेय का अन्य कोई साधन नहीं है (2। 31)। फिर कहा कि समबुद्धि से युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (2। 38)। अब उसी समबुद्धि को कर्मयोग के विषय में कहते हैं। कर्मयोगी लोकसंग्रह के लिये सब कर्म करता है ‘लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि’ (गीता 3। 20)। लोकसंग्रह के लिये कर्म करने से अर्थात् निःस्वार्थ भाव से लोकमर्यादा सुरक्षित रखने के लिये लोगों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिये कर्म करने से समता की प्राप्ति सुगमता से हो जाती है। समता की प्राप्ति होने से कर्मयोगी कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक छूट जाता है। यह (39वाँ) श्लोक तीसवें श्लोक के बाद ही ठीक बैठता है और यह वहीं आना चाहिये था। कारण यह है कि इस श्लोक में दो निष्ठाओं का वर्णन है। पहले 11वें से 30वें श्लोक तक सांख्ययोग से निष्ठा (समता) बतायी और अब कर्मयोग से निष्ठा (समता) बताते हैं। अतः यहाँ 31से 38 तक के आठ श्लोकों को देना असंगत मालूम देता है। फिर भी इन आठ श्लोकों को यहाँ देने का कारण यह है कि कर्मयोग में समता कहने से पहले कर्तव्य क्या है ? और अकर्तव्य क्या है ? अर्जुन के लिये युद्ध करना कर्तव्य है और युद्ध न करना अकर्तव्य है । इस विषय का वर्णन होना आवश्यक है। अतः भगवान ने कर्तव्य-अकर्तव्य का वर्णन करने के लिये ही उपर्युक्त आठ श्लोक (2। 3138) कहे हैं और फिर समता की बात कही है। तात्पर्य है कि पहले 11वें से 30वें श्लोक तक सत – असत वर्णन से समता बतायी कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। इनमें कोई कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। फिर 31वें से 38वें श्लोक तक कर्तव्य-अकर्तव्य की बात कहकर 39वें श्लोक से अकर्तव्य का त्याग और कर्तव्य का पालन करते हुए कर्मों की सिद्धि-असिद्धि और फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में समता का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी