सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥2.40॥
न–नहीं; इह-इस मे; अभिक्रम-प्रयत्न; नाश:-हानि; अस्ति–है; प्रत्यवायः-प्रतिकूल परिणाम; न-कभी नहीं; विद्यते-है; सु अल्पम्-थोड़ा; अपि – यद्यपि; अस्य-इसका; धर्मस्य-व्यवसाय ; त्रयते-रक्षा करता है; महतः-महान; भयात्-भय से।
इस चेतनावस्था में कर्म करने से किसी प्रकार की हानि या प्रतिकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते अपितु इस प्रकार से किया गया अल्प प्रयास भी बड़े से बड़े भय से हमारी रक्षा करता है। अर्थात मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है ।।2.40।।
इस समबुद्धि की महिमा भगवान ने पूर्वश्लोक के उत्तरार्ध में और इस (40वें) श्लोक में चार प्रकार से बतायी है (1) इसके द्वारा कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है (2) इसके उपक्रम का नाश नहीं होता (3) इसका उलटा फल नहीं होता और (4) इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान भय से रक्षा करने वाला होता है। ‘नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति’ – इस समबुद्धि (समता) का केवल आरम्भ ही हो जाय तो उस आरम्भ का भी नाश नहीं होता। मन में समता प्राप्त करने की जो लालसा उत्कण्ठा लगी है यही इस समता का आरम्भ होना है। इस आरम्भ का कभी अभाव नहीं होता क्योंकि सत्य वस्तु की लालसा भी सत्य ही होती है। यहाँ ‘इह’ कहने का तात्पर्य है कि इस मनुष्य लोक में यह मनुष्य ही इस समबुद्धि को प्राप्त करने का अधिकारी है। मनुष्य के सिवाय दूसरी सभी भोग योनियाँ है। अतः उन योनियों में विषमता (राग-द्वेष) का नाश करने का अवसर नहीं है क्योंकि भोग राग-द्वेष पूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं बल्कि साधन ही होगा। ‘प्रत्यवायो न विद्यते’ – सकामभावपूर्वक किये गये कर्मों में अगर मन्त्र-उच्चारण , यज्ञ-विधि आदि में कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे कोई पुत्रप्राप्ति के लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधि की त्रुटि हो जाने से पुत्र का होना तो दूर रहा , घर में किसी की मृत्यु हो जाती है अथवा विधि की कमी रहने से इतना उलटा फल न भी हो तो भी पुत्र पूर्ण अङ्गों के साथ नहीं जन्मता परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धि को अपने अनुष्ठान में लाने का प्रयत्न करता है , उसके प्रयत्न का अनुष्ठान का कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठान में फल की इच्छा नहीं होती। जब तक फलेच्छा रहती है तब तक समता नहीं आती और समता आने पर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठान का विपरीत फल होता ही नहीं , होना सम्भव ही नहीं। विपरीत फल क्या है ? संसार से विषमता का होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्य में राग होना और किसी कार्य में द्वेष होना ही विषमता है और इसी विषमता से जन्म-मरण रूप बन्धन होता है परन्तु मनुष्य में जब समता आती है तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेष के न रहने से विषमता नहीं रहती तो फिर उसका विपरीत फल होने का कोई कारण ही नहीं है। ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ इस समबुद्धिरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान हो जाय , थोड़ी सी भी समता जीवन में आचरण में आ जाय तो यह जन्म-मरण रूप महान भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे यह समता धनसम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति नहीं होत। साधक के अन्तःकरण में अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु , व्यक्ति , घटना , परिस्थिति आदि में जितनी समता आ जाती है उतनी समता अ़टल हो जाती है। इस समता का किसी भी काल में नाश नहीं हो सकता। जैसे योगभ्रष्ट की साधन अवस्था में जितनी समता आ जाती है , जितनी साधन-सामग्री हो जाती है उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकों में बहुत वर्षों तक सुख भोगने पर और मृत्यु लोक में श्रीमानों के घर में भोग भोगने पर भी नाश नहीं होता (गीता 6। 41 44)। यह समता , साधन-सामग्री कभी किञ्चिन्मात्र भी खर्च नहीं होती बल्कि सदा ज्यों की त्यों सुरक्षित रहती है क्योंकि यह सत् है , सदा रहने वाली है। धर्म नाम दो बातों का है (1) दान करना , प्याऊ लगाना , अन्न-क्षेत्र खोलना आदि परोपकार के कार्य करना और (2) वर्णआश्रमके अनुसार शास्त्रविहित अपने कर्तव्यकर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है। समतासम्बन्धी विशेष बात – लोगों के भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगने से ही भजन-स्मरण होता है , मन नहीं लगा तो राम-राम करने से क्या लाभ ? परन्तु गीता की दृष्टि में मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीता की दृष्टि में ऊँची चीज है समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें जिसमें समता आ गयी उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।समता दो तरह की होती है अन्तःकरण की समता और स्वरूप की समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मा में जो स्थित हो गया उसने संसारमात्र पर विजय प्राप्त कर ली वह जीवन्मुक्त हो गया परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरण की समता से होती है (गीता 5। 19)। अन्तःकरण की समता है सिद्धि-असिद्धि में सम रहना (गीता 2। 48)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय , कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय , लाखों रूपये आ जायँ या लाखों रूपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरण में कोई हलचल न हो , सुख-दुःख , हर्ष-शोक आदि न हो (गीता 5। 20)। इस समता का कभी नाश नहीं होता। कल्याण के सिवाय इस समता का दूसरा कोई फल होता ही नहीं। मनुष्य तप , दान , तीर्थ , व्रत आदि कोई भी पुण्यकर्म करे वह फल देकर नष्ट हो जाता है परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरण में थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती बल्कि कल्याण कर देती है। इसलिये साधन में समता जितनी ऊँची चीज है मन की एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होने से सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती है पर कल्याण नहीं होता परन्तु समता आने से मनुष्य संसार-बन्धन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। 39वें श्लोक में भगवान ने जिस समबुद्धि को योग में सुनने के लिये कहा था उसी समबुद्धि को प्राप्त करने का साधन आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदासजी