सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।2.42।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।।
याम् इमाम् – ये सब ; पुष्पिताम्- दिखावटी ; वाचम्-शब्द; प्रवदन्ति-कहते हैं; अविपश्चित:-अल्पज्ञान वाले मनुष्य; वेदवादरताः-वेदों के अलंकारिक शब्दों में आसक्ति रखने वाले; पार्थ-पृथा का पुत्र अर्जुन; न अन्यत्-दूसरा कोई नहीं; अस्ति-है; इति–इस प्रकार; वादिनः-अनुशंसा करना; काम आत्मानः–इन्द्रियतृप्ति के इच्छुक; स्वर्गपरा:–स्वर्गलोक की प्राप्ति का लक्ष्य रखने वाले; जन्मकर्मफल-उत्तम जन्म तथा फल की इच्छा से कर्म करने वाले; प्रदाम-प्रदान करने वाला; क्रियाविशेष-आडम्बरपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान करना; बहुलाम्-विभिन्न; भोग-इन्द्रिय तृप्ति; ऐश्वर्य-वैभव; गतिम्-उन्नति; प्रति-की ओर।
अल्पज्ञ मनुष्य वेदों के आलंकारिक शब्दों पर अत्यधिक आसक्त रहते हैं जो स्वर्गलोक का सुख भोगने के प्रयोजनार्थ दिखावटी कर्मकाण्ड करने की अनुशंसा करते हैं और जो यह मानते हैं कि इन वेदों में कोई उच्च सिद्धान्तों का वर्णन नहीं किया गया है। वे वेदों के केवल उन्हीं खण्डों की महिमामण्डित करते हैं जो उनकी इन्द्रियों को तृप्त करते हैं और वे उत्तम जन्म, ऐश्वर्य, इन्द्रिय तृप्ति और स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए आडम्बरयुक्त कर्मकाण्डों के पालन में लगे रहते हैं।।2.42।। & ।।2.43।।
2.42-2.43 ‘कामात्मानः’ वे कामनाओं में इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपने में और कामना में भिन्नता ही नहीं दिखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामना के बिना आदमी जी नहीं सकता , कामना के बिना कोई भी काम नहीं हो सकता , कामना के बिना आदमी पत्थर की जड हो जाता है , उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाव वाले पुरुष ‘कामात्मानः’ हैं। स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों का त्यों रहता है , उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्मा का अंश है और कामना संसार के अंश को लेकर है। अतः स्वयं और कामना ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं परन्तु कामना में रचे-पचे लोगों को अपने स्वरूप का अलग भान ही नहीं होता। ‘स्वर्गपराः’ – स्वर्ग में बढ़िया से बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं इसलिये उनके लक्ष्य में स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्ति में ही रात-दिन लगे रहते हैं। यहाँ ‘स्वर्गपराः’ पद से उन मनुष्यों की बात कही गयी है जो वेदों में शास्त्रों में वर्णित स्वर्गादि लोकों में आस्था रखने वाले हैं। ‘वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः’ – वे वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों में प्रीति रखने वाले हैं अर्थात् वेदों का तात्पर्य वे केवल भोगों में और स्वर्ग की प्राप्ति में मानते हैं इसलिये वे ‘वेदवादरताः’ हैं। उनकी मान्यता में यहाँ के और स्वर्ग के भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टि में भोगों के सिवाय परमात्मा तत्त्वज्ञान , मुक्ति , भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है। ‘यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ‘ – जिनमें सत – असत , नित्य-अनित्य , अविनाशी-विनाशी का विवेक नहीं है – ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदों की जिस वाणी में संसार और भोगों का वर्णन है उस पुष्पित वाणी को कहा करते हैं। यहाँ ‘पुष्पिताम्’ कहने का तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति का वर्णन करने वाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है फल नहीं है। तृप्ति फल से ही होती है , फूल-पत्ती की शोभा से नहीं। वह वाणी स्थायी फल देने वाली नहीं है। उस वाणी का जो फल स्वर्गादि का भोग है वह केवल देखने में ही सुन्दर दिखता है उसमें स्थायीपना नहीं है। ‘जन्मकर्मफलप्रदाम्’ वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफल को देनेवाली है क्योंकि उसमें सांसारिक भोगों को ही महत्व दिया गया है। उन भोगों का राग ही आगे जन्म होने में कारण है (गीता 13। 21)। ‘क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति’ वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी , भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये जिन सकाम अनुष्ठानों का वर्णन करती है उनमें क्रियाओं की बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानों में अनेक तरह की विधियाँ होती हैं , अनेक तरह की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं , अनेक तरह के पदार्थों की जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदि में परिश्रम भी अधिक होता है (गीता 18। 24)।