सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुध्दिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
भोग-तृप्ति; ऐश्वर्य-विलासता; प्रसक्तानाम्-द्योर आसक्त पुरुष; तया-ऐसे पदार्थों से; अपहृतचेतसाम्-भ्रमित बुद्धि वाले, जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है और भोगोंकी तरफ खिंच गया है; व्यवसाय आत्मिका:- दृढ़ निश्चय; बुद्धि-बुद्धि; समाधौ–पूरा करना; न-नहीं; विधीयते-घटित होती है।
उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें दृढ़ निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती अर्थात समाधि और ध्यान की अवस्था में स्थित नहीं होती ।।2.44।।
‘तयापहृतचेतसाम्’ पूर्वश्लोकों में जिस पुष्पित वाणी का वर्णन किया गया है उस वाणी से जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्ग में बड़ा भारी सुख है , दिव्य नन्दनवन है , अप्सराएँ हैं , अमृत है – ऐसी वाणी से जिनका चित्त उन भोगों की तरफ खिंच गया है। ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’ शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ये पाँच विषय शरीर का आराम , मान और नाम की बड़ाई इनके द्वारा सुख लेने का नाम भोग है। भोगों के लिये पदार्थ रूपये , पैसे , मकान आदि का जो संग्रह किया जाता है उसका नाम ऐश्वर्य है। इन भोग और ऐश्वर्य में जिनकी आसक्ति है , प्रियता है , खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है उनको ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’ कहा गया है। जो भोग और ऐश्वर्य में ही लगे रहते हैं वे आसुरी सम्पत्ति वाले होते हैं। कारण कि असु नाम प्राणों का है और उन प्राणों को जो बनाये रखना चाहते हैं उन प्राण-पोषण-परायण लोगों का नाम असुर है। वे शरीर की प्रधानता को लेकर यहाँ के अथवा स्वर्ग के भोग भोगना चाहते हैं (टिप्पणी प0 80) । ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते’ जो मनुष्यजन्म का असली ध्येय है जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है उस परमात्मा को ही प्राप्त करना है -ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगों में नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं जो भोग भोगे जा सकते हैं जिन भोगों को सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं उनके संस्कारों के कारण बुद्धि में जो मलिनता रहती है उस मलिनता के कारण संसार से सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्मा की तरफ चलना है – ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसार की अनेक विद्याओं , कलाओं आदि का जो संग्रह है उससे मैं विद्वान हूँ , मैं जानकार हूँ – ऐसा जो अभिमानजन्य सुख का भोग होता है उसमें आसक्त मनुष्यों का भी परमात्मप्राप्ति का एक निश्चय नहीं होता। विशेष बात – परमदयालु प्रभु ने कृपा करके इस मनुष्यशरीर में एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है जिससे वह सुख-दुःख से ऊँचा उठ जाय , अपना उद्धार कर ले , सबकी सेवा करके भगवान को अपने वश में कर ले , इसी में मनुष्यशरीर की सार्थकता है परन्तु प्रभु-प्रदत्त इस विवेक-शक्ति का अनादर करके नाशवान भोग और संग्रह में आसक्त हो जाना पशु-बुद्धि है। कारण कि पशु-पक्षी भी भोगों में लगे रहते हैं – ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगों में लगा रहे तो पशु-पक्षियों में और मनुष्य में अन्तर ही क्या रहा ? पशु-पक्षी तो भोगयोनि है । अतः उनके सामने कर्तव्य का प्रश्न ही नहीं है परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्य का पालन करके अपना उद्धार करने के लिये ही मिला है , भोग भोगने के लिये नहीं। इसलिये मनुष्य के सामने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है – वह सब साधनसामग्री है , भोगसामग्री नहीं। जो उसको भोगसामग्री मान लेते हैं उनकी परमात्मा में व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती। वास्तव में सांसारिक पदार्थ परमात्मा की तरफ चलने में बाधा नहीं देते बल्कि वर्तमान में जो भोगों का महत्व अन्तःकरण में बैठा हुआ है वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते जितना भोगों का महत्व अटकाता है। अटकाने में अपनी रुचि नीयत की प्रधानता है। भोग और संग्रह की रुचि को रखते हुए कोई परमात्मा को प्राप्त करना चाहे तो परमात्मा की प्राप्ति तो दूर रही , उनकी प्राप्ति का एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्मा की तरफ चलने की रुचि है वहीं भोगों की रुचि भी है। जब तक भोग और संग्रह में मान-बड़ाई-आराम में रुचि है तब तक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मा में नहीं लग सकता क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगों की रुचि द्वारा हर लिया गया । उसकी जो शक्ति थी वह भोग और संग्रह में लग गयी। किसी बात को पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान निष्कामभाव को पुष्ट करना चाहते हैं । अतः पीछे के तीन श्लोकों में सकाम भाव वालों का वर्णन करके अब आगे के श्लोक में निष्काम होने की प्रेरणा करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी