The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 2

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।

 

कर्मणि-निर्धारित कर्मः एव -केवल; अधिकारः-अधिकार; ते -तुम्हारा; मा-नहीं; फलेषु- कर्मफल में ; कदाचन-किसी भी समय; मा- कभी नहीं; कर्मफल-कर्म के परिणामस्वरूप फल; हेतुः-कारण; भू:-होना; मा-नहीं; ते- तुम्हारी; सङ्गः-आसक्ति; अस्तु-हो; अकर्मणि-अकर्मा रहने में।

 

तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।। अर्थात तुम केवल कर्म करो । कर्म के फलों में आसक्ति मत रखो । तुम्हारे अच्छे और बुरे कर्मों के आधार पर फल तुम्हें अपने निर्धारित समय पर स्वयं ही प्राप्त हो जाएंगे।। 2.47।।

 

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ – प्राप्त कर्तव्य कर्म का पालन करने में ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्य के सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करने के लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष , लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदि में नया कर्म करने की सामर्थ्य तो है पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ , दान आदि शुभ कर्मों का फल भोगने के लिये ही हैं। वे भगवान के विधान के अनुसार मनुष्यों के लिये कर्म करने की सामग्री दे सकते हैं पर केवल सुखभोग में ही लिप्त रहने के कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होने  के कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं , नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करने में तो केवल मनुष्य का ही अधिकार है। भगवान ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्य-जन्म दिया है। अगर यह कर्मों को अपने लिये करेगा तो बन्धन में पड़ जायगा और अगर कर्मों को न करके आलस्य-प्रमाद में पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्यकर्म करने में ही अधिकार है। ‘कर्मणि’ पद में एकवचन देने का तात्पर्य है कि मनुष्य के सामने देश , काल , घटना , परिस्थिति आदि को लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे पर एक समय में एक मनुष्य किसी एक कर्म को ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे क्षत्रिय होने के कारण अर्जुन के लिये युद्ध करना , दान देना आदि कर्तव्यकर्मों का विधान है पर वर्तमान में युद्ध के समय वह एक युद्धरूप कर्तव्यकर्म ही कर सकता है , दान आदि कर्तव्यकर्म नहीं कर सकता। मार्मिक बात – मनुष्यशरीर में दो बातें हैं – पुराने कर्मों का फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियों में केवल पुराने कर्मों का फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग , पशु-पक्षी , देवता , ब्रह्मलोक तक की योनियाँ भोगयोनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो और ऐसा मत करो यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी , कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं , उनका वह कर्म भी फल-भोग में है। कारण कि उनके द्वारा किया जाने वाला कर्म उनके प्रारब्ध के अनुसार पहले से ही रचा हुआ है। उनके जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का जो कुछ भोग होता है वह भोग भी फल-भोग में ही है परन्तु मनुष्य-शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है जिससे यह अपना उद्धार कर ले। इस मनुष्यशरीर में दो विभाग हैं – एक तो इसके सामने पुराने कर्मों के फलरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र सन्त महापुरुषों का विधि-निषेध राज्य आदि का शासन केवल मनुष्यों के लिये ही होता है क्योंकि मनुष्य में पुरुषार्थ की प्रधानता है , नये कर्मों को करने की स्वतन्त्रता है परन्तु पिछले कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाली अनुकूल-प्रतिकूल रूप परिस्थिति को बदलने में यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र और फलप्राप्ति में परतन्त्र है परन्तु अनुकूल-प्रतिकूल रूप से प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन सामग्री बना सकता है क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धार के लिये है और पुराने कर्मों के फल फलरूप से प्राप्त परिस्थिति भी उद्धार के लिये ही है। इसमें एक विशेष समझने की बात है कि इस मनुष्य-जीवन में प्रारब्ध के अनुसार जो भी शुभ या अशुभ परिस्थिति आती है , उस परिस्थिति को मनुष्य सुखदायी या दुःखदायी तो मान सकता है पर वास्तव में देखा जाय तो उस परिस्थिति से सुखी या दुःखी होना कर्मों का फल नहीं हैं बल्कि मूर्खता का फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहर से बनती है और सुखी-दुःखी होता है यह स्वयं। उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य करके ही यह सुख-दुःख का भोक्ता बनता है। अगर मनुष्य उस परिस्थिति के साथ तादात्म्य न करके उसका सदुपयोग करे तो वही परिस्थिति उसका उद्धार करने के लिये साधनसामग्री बन जायगी। सुखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है – दूसरों की सेवा करना और दुःखदायी परिस्थिति का सदुपयोग है – सुखभोग की इच्छा का त्याग करना। दुःखदायी परिस्थिति आने पर मनुष्य को कभी भी घबराना नहीं चाहिये बल्कि यह विचार करना चाहिये कि हमने पहले सुखभोग की इच्छा से ही पाप किये थे और वे ही पाप दुःखदायी परिस्थिति के रूप में आकर नष्ट हो रहे हैं। इसमें एक लाभ यह है कि उन पापों का प्रायश्चित्त हो रहा है। और हम शुद्ध हो रहे हैं। दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बात की चेतावनी मिलती है कि अब हम सुखभोग के लिये पाप करेंगे तो आगे भी इसी प्रकार दुःखदायी परिस्थिति आयेगी। इसलिये सुखभोग की इच्छा से अब कोई काम करना ही नहीं है बल्कि  प्राणिमात्र के हित के लिये ही काम करना है। तात्पर्य यह हुआ है पशु-पक्षी , कीट-पतंग आदि योनियों के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म ये दोनों ही भोगरूप में हैं और मनुष्य के लिये पुराने कर्मों का फल और नया कर्म (पुरुषार्थ ) ये दोनों ही उद्धार के साधन हैं। ‘मा फलेषु कदाचन’ – फल में तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फल की प्राप्ति में तेरी स्वतन्त्रता नहीं है क्योंकि फल का विधान तो मेरे अधीन है। अतः फल की इच्छा न रख कर कर्तव्यकर्म कर। अगर तू फल की इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायेगा ‘फले सक्तो निबध्यते’  (गीता 5। 12)। कारण कि फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्व पर ही कर्तव्य टिका हुआ है अर्थात् भोक्तृत्व से ही कर्त्तृत्व आता है। फलेच्छा सर्वथा मिटने से कर्तृत्व मिट जाता है और कर्तृत्व मिटने से मनुष्य कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता। भाव यह हुआ कि वास्तव में मनुष्य कर्तृत्व में उतना फँसा हुआ नहीं है जितना फलेच्छा अर्थात् भोक्तृत्व में फँसा हुआ है  (टिप्पणी प0 84) । दूसरी बात जितने भी कर्म होते हैं वे सभी प्राकृत पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन से ही होते हैं। पदार्थों और व्यक्तियों के संगठन के बिना स्वयं कर्म कर ही नहीं सकता । अतः इनके संगठन के द्वारा किये हुए कर्म का फल अपने लिये चाहना ईमानदारी नहीं है। अतः कर्म का फल चाहना मनुष्य के लिये हितकारक नहीं है। फलमें तेरा अधिकार नहीं है इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि फल के साथ सम्बन्ध जोड़ने में अथवा न जोड़ने में मात्र मनुष्य स्वतन्त्र हैं , सबल हैं। इसमें वे पराधीन और निर्बल नहीं है। ‘फलेषु’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म तो एक करता है पर उस कर्म के फल अनेक चाहता है। जैसे मैं अमुक कर्म कर रहा हूँ तो इससे मेरे को पुण्य हो जाय , संसार में मेरी कीर्ति हो जाय लोग मेरे को अच्छा समझें , मेरा आदर-सत्कार करें , मेरे को इतना धन प्राप्त हो जाय आदि आदि। निष्काम होने के उपाय (1) कामना पैदा होने से अभाव होता है । कामना की पूर्ति होने से परतन्त्रता और पूर्ति न होने से दुःख होता है तथा कामनापूर्ति का सुख लेने से नयी कामना की उत्पत्ति होती है और सकामभावपूर्वक नये-नये कर्म करने की रुचि बढ़ती चली जाती है । ऐसा ठीक-ठीक समझ लेने से निष्कामता स्वतः आ जाती है। (2) कर्म नित्य नहीं है क्योंकि उनका आरम्भ और अन्त होता है तथा उन कर्मों का फल भी नित्य नहीं है क्योंकि उनका भी संयोग और वियोग होता है परन्तु स्वयं नित्य है। अनित्य कर्म और कर्मफल से नित्य स्वरूप को कोई लाभ नहीं होता। ऐसा ठीक समझ लेने से निष्कामता आ जाती है। निष्काम होने से संसार का सम्बन्ध छूट जाता है और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। कर्मों में निष्काम होने के लिये साधक में तेजी का विवेक भी होना चाहिये और सेवाभाव भी होना चाहिये क्योंकि इन दोनों के होने से ही कर्मयोग ठीक तरह से आचरण में आयेगा नहीं तो कर्म हो जायँगे पर योग नहीं होगा। तात्पर्य है कि अपने सुख-आराम का त्याग करने में तो विवेक की प्रधानता होना चाहिये और दूसरों को सुख-आराम पहुँचाने में सेवाभाव की प्रधानता होना चाहिये। ‘मा कर्मफलहेतुर्भूः’ तू कर्मफल का हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि कर्मसामग्री के साथ अपनी किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये क्योंकि इनमें ममता होने से मनुष्य कर्मफल का हेतु बन जाता है। आगे 5वें अध्याय के 11वें श्लोक में भी भगवान ने शरीर , मन , बुद्धि और इन्द्रियों के साथ ‘केवलैः’ पद देकर बताया है कि शरीर आदि के साथ किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होनी चाहिये। शुभ क्रियाओं में फल की इच्छा न होने पर भी मेरे द्वारा किसी का उपकार हो गया , किसी का हित हो गया , किसी को सुख पहुँचा – ऐसा भाव हो जाता है तो यह कर्मफल का हेतु बनना है। कारण कि ऐसा भाव होने से शुभ कर्म के साथ और मन-बुद्धि-इन्द्रियों आदि के साथ सम्बन्ध हो जाता है जो कि असत का सङ्ग है। वास्तव में अन्तःकरण , बहिःकरण और क्रियाओं के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। इनका सम्बन्ध समष्टि संसार के साथ है। जैसे दूसरे किसी व्यक्ति के द्वारा दूसरे किसी का हित होता है तो उसमें हम अपना सम्बन्ध नहीं मानते , उसमें अपने को निमित्त नहीं मानतो। ऐसे ही अपने कहलाने वाले शरीर आदि से किसी  का हित हो जाय तो उसमें अपने को निमित्त न माने। जब अपने को किसी भी क्रिया में निमित्त हेतु नहीं मानेंगे तो कर्मफल का हेतु भी नहीं बनेंगे। ‘मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’ कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म न करने में आसक्ति होने से आलस्य , प्रमाद आदि होंगे। कर्मफल में आसक्ति रहने से जैसा बन्धन होता है वैसा ही बन्धन कर्म न करने में आलस्य , प्रमाद आदि होने से होता है क्योंकि आलस्य-प्रमाद का भी एक भोग होता है अर्थात् उनका भी एक सुख होता है जो तमोगुण है – ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्’ (गीता 18। 39) और जिसका फल अधोगति होता है – ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’ (गीता 14। 18)। तात्पर्य यह हुआ है कि राग , आसक्ति कहीं भी होगी तो वह बाँधने वाली हो ही जायगी – ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’  (गीता 13। 21)। कर्मरहित होने से हमें लौकिक लाभ होगा , संसार में हमारी प्रसिद्धि होगी आदि कोई सांसारिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये और समाधि लग जाने से आध्यात्मिक तत्त्व में हमारी स्थिति होगी आदि कोई पारमार्थिक प्रयोजन भी नहीं होना चाहिये। तात्पर्य है कि कर्म न करने से सांसारिक और पारमार्थिक उन्नति होगी – यह भी कर्म न करने में आसक्ति है क्योंकि वास्तविक तत्त्व कर्म करने और न करने से अतीत है। इस श्लोक में भगवान का यह तात्पर्य मालूम देता है कि परिवर्तनशील वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ , क्रिया , घटना , परिस्थिति , अवस्था , स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर आदि के साथ साधक की सर्वथा निर्लिप्तता होनी चाहिये। इनके साथ किञ्चिन्मात्र भी किसी तरह का सम्बन्ध नहीं होना चाहिये। इस श्लोक के चार चरणों में चार बातें आयी हैं (1) कर्म करने में ही तेरा अधिकार है (2) फल में कभी तेरा अधिकार नहीं है (3) तू कर्मफल का कारण भी मत बन और (4) कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो। इनमें से पहले और चौथे चरण की बात एक है तथा दूसरे और तीसरे चरण की बात एक है। पहले चरण में कर्म करने में अधिकार बताया है और चौथे चरण में कर्म न करने में आसक्ति होने का निषेध किया है। दूसरे चरण में फल की इच्छा का निषेध किया है और तीसरे चरण में फल का हेतु बनने का निषेध किया है।तात्पर्य यह हुआ कि अकर्मण्यता में रुचि होने से प्रमाद , आलस्य आदि तामसी वृत्ति के साथ तेरा सम्बन्ध हो जायगा। कर्म एवं कर्मफल के साथ सम्बन्ध जोड़ने से तेरा राजसी वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। प्रमाद , आलस्य , कर्म , कर्मफल आदि का सम्बन्ध न रहने पर जो विवेकजन्य सुख होता है , प्रकाश मिलता है , ज्ञान मिलता है – उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने से सात्त्विकी वृत्ति के साथ सम्बन्ध हो जायगा। इनके साथ सम्बन्ध होना ही जन्म-मरण का कारण है। अतः साधक कर्म , कर्मफल और इनके त्याग का सुख इनमें से किसी के भी साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े , इनमें राग या आसक्ति न करे। कर्म करते हुए इनके साथ सम्बन्ध न रखना ही कर्मयोग है। पूर्वश्लोक में कर्म करने की आज्ञा देने के बाद अब भगवान कर्म करते हुए सम रहने का प्रकार बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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