सांख्ययोग ~ अध्याय दो
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
अर्जुन उवाच।
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥2.4॥
अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; कथम् – कैसे; भीष्मम्-भीष्म को; अहम् – मे; संख्ये-युद्ध मे; द्रोणम्-द्रोणाचार्य को; च-और; मधुसूदन-मधु राक्षस के दमनकर्ता, श्रीकृष्ण; इषुभिः-वाणों से; प्रतियोत्स्यामि -प्रहार करूँगा; पूजा अहौ-पूजनीय; अरिसूदन-शत्रुओं के दमनकर्ता! ।
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! हे शत्रुओं के दमनकर्ता! मैं युद्धभूमि में कैसे भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे महापुरुषों पर बाण चला सकता हूँ जो मेरे लिए परम पूजनीय है।। 2.4 ।।
‘मधुसूदन’ और ‘अरिसूदन’ ये दो सम्बोधन देने का तात्पर्य है कि आप दैत्यों को और शत्रुओं को मारने वाले हैं अर्थात् जो दुष्ट स्वभाव वाले अधर्ममय आचरण करने वाले और दुनिया को कष्ट देने वाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं , उनको भी आपने मारा है और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं , अनिष्ट करते हैं – ऐसे शत्रुओं को भी आपने मारा है परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं जो आचरणों में सर्वथा श्रेष्ठ हैं । मेरे पर अत्यधिक स्नेह रखने वाले हैं और प्यारपूर्वक मेरे को शिक्षा देने वाले हैं। ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरु को मैं कैसे मारूँ ? कथं (टिप्पणी प0 40)भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च – मैं कायरता के कारण युद्ध से विमुख नहीं हो रहा हूँ बल्कि धर्म को देखकर युद्ध से विमुख हो रहा हूँ परन्तु आप कह रहे हैं कि यह कायरता , यह नपुंसकता तुम्हारे में कहाँ से आ गयी ? आप जरा सोचें कि मैं पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के साथ बाणों से युद्ध कैसे करूँ ? महाराज ! यह मेरी कायरता नहीं है। कायरता तो तब कही जाय जब मैं मरने से डरूँ। मैं मरने से नहीं डर रहा हूँ बल्कि मारने से डर रहा हूँ। संसार में दो ही तरह के सम्बन्ध मुख्य हैं – जन्मसम्बन्ध और विद्यासम्बन्ध। जन्म के सम्बन्ध से तो पितामह भीष्म हमारे पूजनीय हैं। बचपन से ही मैं उनकी गोद में पला हूँ। बचपन में जब मैं उनको पिताजी-पिताजी कहता तब वे प्यार से कहते कि मैं तो तेरे पिता का भी पिता हूँ । इस तरह वे मेरे पर बड़ा ही प्यार , स्नेह रखते आये हैं। विद्या के सम्बन्ध से आचार्य द्रोण हमारे पूजनीय हैं। वे मेरे विद्यागुरु हैं। उनका मेरे पर इतना स्नेह है कि उन्होंने खास अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी मेरे समान नहीं पढ़ाया। उन्होंने ब्रह्मास्त्र को चलाना तो दोनों को सिखाया पर ब्रह्मास्त्र का उपसंहार करना मेरे को ही सिखाया अपने पुत्र को नहीं। उन्होंने मेरे को यह वरदान भी दिया है कि मेरे शिष्यों में अस्त्र-शस्त्र कला में तुम्हारे से बढ़कर दूसरा कोई नहीं होगा। ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तो वाणी से रे तू ! ऐसा कहना भी उनकी हत्या करने के समान पाप है , फिर मारने की इच्छा से उनके साथ बाणों से युद्ध करना कितने भारी पाप की बात है । इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हौ -सम्बन्ध में बड़े होने के नाते पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण ये दोनों ही आदरणीय और पूजनीय हैं। इनका मेरे पर पूरा अधिकार है। अतः ये तो मेरे पर प्रहार कर सकते हैं पर मैं उन पर बाणों से कैसे प्रहार करूँ ? उनका प्रतिद्वन्द्वी होकर युद्ध करना तो मेरे लिये बड़े पाप की बात है क्योंकि ये दोनों ही मेरे द्वारा सेवा करने योग्य हैं और सेवा से भी बढ़कर पूजा करने योग्य हैं। ऐसे पूज्यजनों को मैं बाणों से कैसे मारूँ? पूर्वश्लोक में अर्जुन ने उत्तेजित होकर भगवान से अपना निर्णय कह दिया। अब भगवद् वाणी का असर होने पर अर्जुन अपने और भगवान के निर्णय का सन्तुलन करके कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी