सांख्ययोग ~ अध्याय दो
39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
कर्मजम्-सकाम कर्मों से उत्पन्न; बुद्धियुक्ताः-समबुद्धि युक्त; हि-निश्चय ही; फलम्-फल; त्यक्त्वा-त्याग कर; मनीषिणः-बड़े-बड़े ऋषि मुनि; जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः-जन्म एवं मृत्यु के बन्धन से मुक्ति; पदं–अवस्था पर; गच्छन्ति–पहुँचते हैं; अनामयम्-कष्ट रहित, दुखों से परे ।
समबुद्धि युक्त बड़े – बड़े ऋषि मुनि और ज्ञानी जान कर्म के फलों की आसक्ति से स्वयं को मुक्त कर लेते हैं जो मनुष्य को जन्म-मृत्यु के चक्र में बांध लेती हैं। अर्थात वे कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं । इस चेतना में कर्म करते हुए वे उस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं जो सभी दुखों से परे है।।2 . 51।।
‘कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः’ – जो समता से युक्त हैं , वे ही वास्तव में मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। 18वें अध्याय के 10वें श्लोक में भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मों से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मों में राग नहीं करता , वह मेधावी (बुद्धिमान्) है। कर्म तो फल के रूप में परिणत होता ही है। उसके फल का त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे कोई खेती में निष्कामभाव से बीज बोये तो क्या खेती में अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है तो उसको कर्म का फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फल का त्याग करने का अर्थ है – कर्मजन्य फल की इच्छा , कामना , ममता , वासना का त्याग करना। इसका त्याग करने में सभी समर्थ हैं। ‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः’ – समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समता में स्थित हो जाने से उनमें राग-द्वेष , कामना , वासना , ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते । अतः उनके पुनर्जन्म का कारण ही नहीं रहता। वे जन्ममरणरूप बन्धन से सदा के लिये मुक्त हो जाते हैं। ‘पदं गच्छन्त्यनामयम्’ – ‘आमय’ नाम रोग का है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकार का विकार न हो उसको ‘अनामय’ अर्थात् ‘निर्विकार’ कहते हैं। समतायुक्त मनीषी लोग ऐसे निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पद को 15वें अध्याय के पाँचवें श्लोक में अव्यय पद और 18वें अध्याय के 56वें श्लोक में शाश्वत अव्यय पद नाम से कहा गया है। यद्यपि गीता में सत्त्वगुण को भी अनामय कहा गया है (14। 6) पर वास्तव में अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है जिसको प्राप्त होकर फिर किसी को भी जन्म-मरण के चक्कर में नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कारण होने से भगवान ने सत्त्वगुण को भी अनामय कह दिया है। अनामय पद को प्राप्त होना क्या है ? प्रकृति विकारशील है तो उसका कार्य शरीरसंसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है तब यह अपने को भी विकारी मान लेता है परन्तु जब यह शरीर के साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग कर देता है तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारता का अनुभव होने को ही यहाँ अनामय पद को प्राप्त होना कहा गया है। इस श्लोक में ‘बुद्धियुक्ताः’ और ‘मनीषिणः’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जो भी समता में स्थित हो जाते हैं वे सब के सब अनामय पद को प्राप्त हो जाते हैं , मुक्त हो जाते हैं। उनमें से कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पद की प्राप्ति का अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों के साथ सम्बन्ध नहीं रहता तब स्वतः सिद्ध निर्विकारता का अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता क्योंकि उस निर्विकारता का निर्माण नहीं करना पड़ता , वह तो स्वतः स्वाभाविक ही है। पूर्वश्लोक में बताये अनामय पद की प्राप्ति का क्रम क्या है ? इसे आगे के दो श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी