सांख्ययोग ~ अध्याय दो
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥2.5॥
गुरून्–शिक्षक; अहत्वा-न मारना; हि-निःसंदेह; महा अनुभावान्-आदरणीय वयोवृद्ध को; श्रेयः-उत्तम; भोक्तुम्-जीवन का सुख भोगना; भैक्ष्यम्-भीख माँगकर; अपि-भी; इह-इस जीवन में; लोके-इस संसार में; हत्वा-वध कर; अर्थ-लाभ; कामान्–इच्छा से; तु–लेकिन; गुरून्-आदरणीय वयोवृद्ध; इह-इस संसार में; एव–निश्चय ही; भुञ्जीय-भोगना; भोगान्-सुख; रूधिर-रक्त से; प्रदिग्धान्-रंजित।
ऐसे आदरणीय महापुरुष जो मेरे गुरुजन हैं, को मारकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा तो भीख मांगकर इस संसार में जीवन निर्वाह करना अधिक श्रेयस्कर है। यदि हम उन्हें मारते हैं तो उसके परिणामस्वरूप हम जिस सम्पत्ति और सुखों का भोग करेंगे वे रक्तरंजित होंगे।। 2.5 ।।
इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे-तीसरे श्लोकों में भगवान के कहे हुए वचन अब अर्जुन के भीतर असर कर रहे हैं। इससे अर्जुन के मन में यह विचार आ रहा है कि भीष्म , द्रोण आदि गुरुजनों को मारना धर्मयुक्त नहीं है – ऐसा जानते हुए भी भगवान मुझे बिना किसी सन्देह के युद्ध के लिये आज्ञा दे रहे हैं तो कहीं न कहीं मेरी समझ में ही गलती है । इसलिये अर्जुन अब पूर्वश्लोक की तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते बल्कि कुछ ढिलाई से बोलते हैं -गुरुनहत्वा ৷৷. भैक्ष्यमपीह लोके । अब अर्जुन पहले अपने पक्ष को सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म , द्रोण आदि पूज्यजनों के साथ युद्ध नहीं करूँगा तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा। इस तरह युद्ध न होने से मेरे को राज्य नहीं मिलेगा जिससे मेरे को दुःख पाना पड़ेगा। मेरा जीवन-निर्वाह भी कठिनता से होगा। यहाँ तक कि क्षत्रिय के लिये निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है उसको ही जीवननिर्वाह के लिये ग्रहण करना पड़ सकता है परन्तु गुरुजनों को मारने की अपेक्षा मैं उस कष्टदायक भिक्षावृत्ति को भी ग्रहण करना श्रेष्ठ मानता हूँ। ‘इह लोके’ कहने का तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खाने से इस संसार में मेरा अपमान-तिरस्कार होगा , लोग मेरी निन्दा करेंगे तथापि गुरुजनों को मारने की अपेक्षा भिक्षा माँगना श्रेष्ठ है। अपि कहने का तात्पर्य है कि मेरे लिये गुरुजनों को मारना भी निषिद्ध है और भिक्षा माँगना भी निषिद्ध है परन्तु इन दोनों में भी गुरुजनों को मारना मुझे अधिक निषिद्ध दिखता है – हत्वार्थकामांस्तु ৷৷. रुधिरप्रदिग्धान् । अब अर्जुन भगवान के वचनों की तरफ दृष्टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञा के अनुसार युद्ध करूँ तो युद्ध में गुरुजनों की हत्या के परिणाम में मैं उनके खून से सने हुए और जिनमें धन आदि की कामना ही मुख्य है – ऐसे भोगों को ही तो भोगूँगा। मेरे को भोग ही तो मिलेंगे। उन भोगों के मिलने से मुक्ति थोड़े ही होगी , शान्ति थोड़े ही मिलेगी । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भीष्म , द्रोण आदि गुरुजन धन के द्वारा ही कौरवों से बँधे थे । अतः यहाँ ‘अर्थकामान्’ पद को ‘गुरुन्’ पद का विशेषण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ? इसका उत्तर यह है कि ‘अर्थ की कामना वाले गुरुजन’ – ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। कारण कि पितामह भीष्म , आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धन की कामना वाले नहीं थे। वे तो दुर्योधन के वृत्तिभोगी थे । उन्होंने दुर्योधन का अन्न खाया था। अतः युद्ध के समय दुर्योधन का साथ छो़ड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवों के पक्ष में खड़े हुए थे।दूसरी बात अर्जुन ने भीष्म , द्रोण आदि के लिये ‘महानुभावान्’ पद का प्रयोग किया है। अतः ऐसे श्रेष्ठ भाव वालों को अर्थ की कामना वाले कैसे कहा जा सकता है ? तात्पर्य है कि जो महानुभाव हैं वे अर्थ की कामना वाले नहीं हो सकते और जो अर्थ की कामना वाले हैं वे महानुभाव नहीं हो सकते। अतः यहाँ ‘अर्थकामान्’ पद ‘भोगान्’ पद का ही विशेषण हो सकता है। विशेष बात – भगवान ने दूसरे-तीसरे श्लोकों में अर्जुन के कल्याण की दृष्टि से ही उन्हें कायरता को छोड़कर युद्ध के लिये खड़ा होने की आज्ञा दी थी परन्तु अर्जुन उलटा ही समझे अर्थात् वे समझे कि भगवान राज्य का भोग करने की दृष्टि से ही युद्ध की आज्ञा देते हैं। (टिप्पणी प0 42) पहले तो अर्जुन का युद्ध न करने का एक ही पक्ष था जिससे वे धनुष-बाण छोड़कर और शोकाविष्ट होकर रथ के मध्यभाग में बैठ गये थे (1। 47) परंतु युद्ध करने का पक्ष तो भगवान के कहने से ही हुआ है। तात्पर्य है कि अर्जुन का भाव था कि हम लोग तो धर्म को जानते हैं पर दुर्योधन आदि धर्म को नहीं जानते । इसलिये वे धन , राज्य आदि के लोभ से युद्ध करने के लिये तैयार खड़े हैं। अब वही बात अर्जुन यहाँ अपने लिये कहते हैं कि अगर मैं भी आपकी आज्ञा के अनुसार युद्ध करूँ तो परिणाम में गुरुजनों के रक्त से सने हुए धन , राज्य आदि को ही तो प्राप्त करूँगा । इस तरह अर्जुन को युद्ध करने में बुराई ही बुराई दिखायी दे रही है। जो बुराई बुराई के रूप में आती है उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है परन्तु जो बुराई अच्छाई के रूपमें आती है उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है जैसे सीताजी के सामने रावण और हनुमान जी के सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान जी पहचान नहीं सके क्योंकि उन दोनों का वेश साधुओं का था। अर्जुन की मान्यता में युद्धरूप कर्तव्यकर्म करना बुराई है और युद्ध न करना भलाई है अर्थात् अर्जुन के मन में धर्म (हिंसा-त्याग) रूप भलाई के वेश में कर्तव्य-त्याग रूप बुराई आयी है। उनको कर्तव्यत्यागरूप बुराई बुराई के रूपमें नहीं दिख रही है क्योंकि उनके भीतर शरीरों को लेकर मोह है। अतः इस बुराई को मिटाने में भगवान को भी बड़ा जोर पड़ रहा है और समय लग रहा है। आजकल समाज में एकता के बहाने वर्णआश्रम की मर्यादा को मिटाने की कोशिश की जा रही है तो यह बुराई एकतारूप अच्छाई के वेश में आने से बुराईरूप से नहीं दिख रही है। अतः वर्णआश्रम की मर्यादा मिटने से परिणाम में लोगों का कितना पतन होगा , लोगों में कितना आसुरभाव आयेगा – इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती। ऐसे ही धन के बहाने लोग झूठ , कपट , बेईमानी , ठगी , विश्वासघात आदि आदि दोषों को भी दोषरूप से नहीं जानते। यहाँ अर्जुन में धर्म के रूप में बुराई आयी है कि हम भीष्म , द्रोण आदि महानुभावों को कैसे मार सकते हैं ? क्योंकि हम धर्म को जानने वाले हैं। तात्पर्य है कि अर्जुन ने जिसको अच्छाई माना है वह वास्तव में बुराई ही है परन्तु उसमें मान्यता अच्छाई की होने से वह बुराईरूप से नहीं दिख रही है। भगवान के वचनों में ऐसी विलक्षणता है कि वे अर्जुन के भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं जिससे अर्जुन को अपने युद्ध न करने के निर्णय में अधिक सन्देह होता जा रहा है। ऐसी अवस्था को प्राप्त हुए अर्जुन कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी