सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2 .61॥
तानि-उन्हें; सर्वाणि-समस्त, सम्पूर्ण ; संयम्य-वश में करना; युक्तः-एक हो जाना; आसीत-स्थित होना चाहिए; मत् परः-मुझमें (श्रीकृष्ण); वशे–वश में; हि-निश्चय ही; यस्य–जिसकी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; तस्य-उनकी; प्रज्ञा–पूर्ण ज्ञान; प्रतिष्ठिता-स्थिर।
वे जो अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में कर लेते हैं और अपने मन को मुझमें स्थिर कर देते हैं अर्थात मेरे परायण हो जाते है , इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं वे निश्चित रूप से दिव्य ज्ञान में स्थित होते हैं अर्थात उनकी बुद्धि स्थिर है। ।।2.61।।
‘यततो ह्यपि ৷৷. प्रसभं मनः’ (टिप्पणी प0 98.1) – जो स्वयं यत्न करता है , साधन करता है , हरेक काम को विवेकपूर्वक करता है , आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करता है , दूसरों का हित हो , दूसरों को सुख पहुँचे , दूसरों का कल्याण हो – ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है । जो स्वयं कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य , सार-असार को जानता है और कौन-कौन से कर्म करने से उनका क्या-क्या परिणाम होता है ? इसको भी जानने वाला है । ऐसे विद्वान पुरुष के लिय यहाँ ‘यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः’ पद आये हैं। प्रयत्न करने वाले ऐसे विद्वान पुरुष की भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं , विषयों की तरफ खींच लेती हैं अर्थात् वह विषयों की तरफ खिंच जाता है , आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जब तक बुद्धि सर्वथा परमात्म तत्त्व में प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती , बुद्धि में संसार की यत्किञ्चित् सत्ता रहती है , विषयेन्द्रिय सम्बन्ध से सुख होता है ,भोगे हुए भोगों के संस्कार रहते हैं तब तक साधन-परायण , बुद्धिमान , विवेकी पुरुष की भी इन्द्रियाँ सर्वथा वश में नहीं होतीं। इन्द्रियों के विषय सामने आने पर भोगे हुए भोगों के संस्कारओं के कारण इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को जबर्दस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियों के उदाहरण भी आते हैं जो विषयों के सामने आने पर विचलित हो गये। अतः साधक को अपनी इन्द्रियों पर कभी भी ‘मेरी इन्द्रियाँ वश में है’ – ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये (टिप्पणी प0 98.2) और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ। पूर्वश्लोक में यह बताया कि रसबुद्धि रहने से यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य की भी इन्द्रियाँ उसके मन को हर लेती हैं । जिससे उसकी बुद्धि परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धि को दूर कैसे किया जाय ? इसका उपाय आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी