सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2 .68॥
तस्मात्-इसलिए; यस्य–जिसकी; महाबाहो-महाबलशाली; निगृहीतानि-विरक्त; सर्वशः-सब प्रकार से; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; इन्द्रिय अर्थेभ्यः-इन्द्रिय विषयों से; तस्य-उस व्यक्ति की; प्रज्ञा-दिव्य ज्ञान; प्रतिष्ठिता-स्थिर रहना।
इसलिए हे महाबाहु। जो मनुष्य इन्द्रियों के विषय भोगों से विरक्त रहता है, वह दृढ़ता से लोकातीत ज्ञान से युक्त हो जाता है अर्थात जिस मनुष्यकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सर्वथा वशमें की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है ।।2.68।।
‘तस्माद्यस्य ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ – 60वें श्लोक से मन और इन्द्रियों को वश में करने का जो विषय चला आ रहा है , उसका उपसंहार करते हुए ‘तस्मात्’ पद से कहते हैं कि जिसके मन और इन्द्रियों में संसार का आकर्षण नहीं रहा है उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। यहाँ ‘सर्वशः’ पद देने का तात्पर्य है कि संसार के साथ व्यवहार करते हुए अथवा एकान्त में चिन्तन करते हुए किसी भी अवस्था में उसकी इन्द्रियाँ भोगों में विषयों में प्रवृत्त नहीं होतीं। व्यवहार काल में कितने ही विषय उसके सम्पर्क में क्यों न आ जायँ पर वे विषय उसको विचलित नहीं कर सकते। उसका मन भी इन्द्रिय के साथ मिलकर उसकी बुद्धि को विचलित नहीं कर सकता। जैसे पहाड़ को कोई डिगा नहीं सकता । ऐसे ही उसकी बुद्धि में इतनी दृढ़ता आ जाती है कि उसको मन किसी भी अवस्थामें डिगा नहीं सकता। कारण कि उसके मन में विषयों का महत्व नहीं रहा। ‘निगृहीतानि’ का तात्पर्य है कि इन्द्रियाँ विषयों से पूरी तरह से वश में की हुई है अर्थात् विषयों में उनका लेशमात्र भी राग , आसक्ति , खिंचाव नहीं रहा है। जैसे साँप के दाँत निकाल दिये जायँ तो फिर उसमें जहर नहीं रहता। वह किसी को काट भी लेता है तो उसका कोई असर नहीं होता। ऐसे ही इन्द्रियों को राग-द्वेष से रहित कर देना ही मानो उनके जहरीले दाँत निकाल देना है। फिर उन इन्द्रियों में यह ताकत नहीं रहती कि वे साधक को पतन के मार्ग में ले जायँ। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि साधक को दृढ़ता से यह निश्चय कर लेना चाहिये कि मेरा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति करना है , भोग भोगना और संग्रह करना मेरा लक्ष्य नहीं है। अगर ऐसी सावधानी साधक में निरन्तर बनी रहे तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जायगी। जिसकी इन्द्रियाँ सर्वथा वश में हैं उसमें और साधारण मनुष्यों में क्या अन्तर है ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी