सांख्ययोग ~ अध्याय दो
54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥2 .70॥
आपूर्यमाणम्-सभी ओर से जलमग्न; अचल प्रतिष्ठम्-विक्षुब्ध न होना; समुद्रम् -समुद्र में; आपः-जलः प्रविशन्ति–प्रवेश करती हैं; यद्वत्-जिस प्रकार; तद्वत्-उसी प्रकार; काम-कामनाएँ ; यम्-जिसमें; प्रविशन्ति–प्रवेश करती हैं; सर्वे- सभी; सः-वह व्यक्ति; शन्तिम्-शान्ति; आप्नोति–प्राप्त करता है; न-नहीं; कामकामी-कामनाओं को तुष्ट करने वाला।
जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर निरंतर मिलता रहता है, पर समुद्र अपनी मर्यादामें अचल प्रतिष्ठित रहता है अर्थात जल के प्रवाह से विक्षुब्ध नहीं होता । ऐसे ही ज्ञानी पुरुष अपने चारों ओर से सम्पूर्ण भोग- पदार्थों से घिरे रहने पर भी या इन्द्रियों के विषयों के आवेग के पश्चात भी शांत रहता है न कि अज्ञानी मनुष्य की भांति भोगों की कामनाओं को तुष्ट करने के प्रयास में लगा रहता है वही संयमी मनुष्य परमशान्तिको प्राप्त होता है, ।।2.70।।
‘आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ‘ – वर्षाकाल में नदियों और नदों का जल बहुत बढ़ जाता है । कई नदियोंमें बाढ़ आ जाती है परन्तु जब वह जल चारों ओरसे जलद्वारा परिपूर्ण समुद्रमें आकर मिलता है तब समुद्र बढ़ता नहीं अपनी मर्यादामें ही रहता है परन्तु जब गरमी के दिनोंमें नदियों और नदों का जल जब बहुत कम हो जाता है तब समुद्र घटता नहीं। तात्पर्य है कि नदी-नदों का जल ज्यादा आने से अथवा कम आने से या न आने से तथा बड़वानल (जल में पैदा होने वाली अग्नि) और सूर्य के द्वारा जल का शोषण होने से समुद्र में कोई फरक नहीं पड़ता । वह बढ़ता-घटता नहीं। उसको नदी-नदों के जल की अपेक्षा नहीं रहती। वह तो सदा-सर्वदा ज्यों का त्यों ही परिपूर्ण रहता है और अपनी मर्यादा का कभी त्याग नहीं करता। ‘तद्वत्कामा’ (टिप्पणी प0 106) ‘यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति’ – ऐसे ही संसार के सम्पूर्ण भोग उस परमात्मतत्त्व को जानने वाले संयमी मनुष्य को प्राप्त होते हैं , उसके सामने आते हैं , पर वे उसके कहे जानेवाले शरीर और अन्तःकरणमें सुख-दुःखरूप विकार पैदा नहीं कर सकते। अतः वह परमशान्ति को प्राप्त होता है। उसकी जो शान्ति है वह परमात्मतत्त्व के कारण से है , भोगपदार्थों के कारण से नहीं (गीता 2। 46)। यहाँ जो समुद्र और नदियों के जल का दृष्टान्त दिया गया है वह स्थितप्रज्ञ संयमी मनुष्य के विषय में पूरा नहीं घटता है। कारण कि समुद्र और नदियों के जलमें तो सजातीयता है अर्थात् जो जल समुद्र में भरा हुआ है उसी जाति का जल , नद-नदियों से आता है और नद-नदियों से जो जल आता है उसी जाति का जल समुद्र में भरा हुआ है परन्तु स्थितप्रज्ञ और सांसारिक भोगपदार्थों में इतना फरक है कि इसको समझाने के लिये रात-दिन आकाश-पाताल का दृष्टान्त भी नहीं बैठ सकता । कारण कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य जिस तत्त्व में स्थित है वह तत्त्व चेतन है , नित्य है , सत्य है ,असीम है न, अनन्त है और सांसारिक भोगपदार्थ जड हैं , अनित्य हैं , असत् हैं , सीमित हैं , अन्तवाले हैं। दूसरा अन्तर यह है कि समुद्र में तो नदियों का जल पहुँचता है पर स्थितप्रज्ञ जिस तत्त्व में स्थित है वहाँ ये सांसारिक भोगपदार्थ पहुँचते ही नहीं बल्कि केवल उसके कहे जाने वाले शरीर , अन्तःकरणतक ही पहुँचते हैं। अतः समुद्र का दृष्टान्त केवल उसके कहे जाने वाले शरीर और अन्तःकरण की स्थिति को बताने के लिये ही दिया गया है। उसके वास्तविक स्वरूप को बताने वाला कोई दृष्टान्त नहीं है। न कामकामी जिनके मन में भोगपदार्थों की कामना है , जो पदार्थों को ही महत्त्व देते हैं , जिनकी दृष्टि पदार्थों की तरफ ही है , उनको कितने ही सांसारिक भोगपदार्थ मिल जायँ तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती , उनकी कामना जलन सन्ताप नहीं मिट सकते तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है ? कारण कि चेतन स्वरूप की तृप्ति जड पदार्थों से हो ही नहीं सकती। अब आगे के श्लोक में स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है ? इस प्रश्न के उत्तर का उपसंहार करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी