Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ 13.16
बहिः-बाहर; अन्तः -भीतरः च और; भूतानाम्-सभी जीवों का; अचरम्-जड़ ; चरम्-जंगम, चल ; एव-भी; च-और; सूक्ष्मत्वात्-सूक्ष्म होने के कारण; तत्-वह; अविज्ञेयम्-अज्ञेय; दूरस्थम्-दूर स्थित; च-भी; अन्तिके–अति समीप; च-तथा; तत्-वह।
वह चराचर परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है अर्थात भगवान सभी जीवों के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर । चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है और वह अति सूक्ष्म होने से अविज्ञेय अर्थात हमारी समझ से परे ( जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है ) हैं तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और अत्यंत दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥13.16॥
[ज्ञेय तत्त्व का वर्णन 12वें से 17वें श्लोक तक – कुल छः श्लोकों में हुआ है। उनमें से यह 15वाँ श्लोक चौथा है। इस श्लोक के अन्तर्गत पहले के तीन श्लोकों का और आगे के दो श्लोकों का भाव भी आ गया है। अतः यह श्लोक इस प्रकरण का सार है।] बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च – जैसे बर्फ के बने हुए घड़ों को समुद्र में डाल दिया जाय तो उन घड़ों के बाहर भी जल है , भीतर भी जल है और वे खुद भी (बर्फ के बने होने से) जल ही हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण चर-अचर प्राणियों के बाहर भी परमात्मा हैं , भीतर भी परमात्मा हैं और वे खुद भी परमात्मस्वरूप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे घड़ों में जल के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है अर्थात् सब कुछ जल ही जल है । ऐसे ही संसार में परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व नहीं है अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही परमात्मा हैं। इसी बात को भगवान ने महात्माओं की दृष्टि से ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता 7। 19) और अपनी दृष्टि से ‘सदसच्चाहम्’ (गीता 9। 19) कहा है। ‘दूरस्थं चान्तिके च तत्’ — किसी वस्तुका दूर और नजदीक होना तीन दृष्टियोंसे कहा जाता है — देशकृत? कालकृत और वस्तुकृत। परमात्मा तीनों ही दृष्टियों से दूर से दूर और नजदीक से नजदीक हैं जैसे – दूर से दूर देश में भी वे ही परमात्मा हैं और नजदीक से नजदीक देश में भी वे ही परमात्मा हैं (टिप्पणी प0 690) पहले से पहले भी वे ही परमात्मा थे , पीछे से पीछे भी वे ही परमात्मा रहेंगे और अब भी वे ही परमात्मा हैं । सम्पूर्ण वस्तुओं के पहले भी वे ही परमात्मा हैं , वस्तुओं के अन्त में भी वे ही परमात्मा हैं और वस्तुओं के रूप में भी वे ही परमात्मा हैं। उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों के संग्रह और सुखभोग की इच्छा करने वाले के लिये परमात्मा (तत्त्वतः समीप होने पर भी ) दूर हैं परन्तु जो केवल परमात्मा के ही सम्मुख है उसके लिये परमात्मा नजदीक हैं। इसलिये साधक को सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग करके केवल परमात्मप्राप्ति की अभिलाषा जाग्रत करनी चाहिये। परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा होते ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् परमात्मा से नित्ययोग का अनुभव हो जाता है। सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम् – वे परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने से इन्द्रियाँ और अन्तःकरण का विषय नहीं है अर्थात् वे परमात्मा इनकी पकड़ में नहीं आते। अब प्रश्न उठता है कि जब जानने में नहीं आते तो फिर उनका अभाव होगा उनका अभाव नहीं है। जैसे परमाणुरूप जल सूक्ष्म होने से नेत्रों से नहीं दिखता पर न दिखने पर भी उसका अभाव नहीं है। वह जल परमाणुरूप से आकाश में रहता है और स्थूल होने पर बूँदें , ओले आदि के रूप में दिखने लग जाता है। ऐसे ही परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने से इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि के द्वारा जानने में नहीं आते क्योंकि वे इनसे परे हैं , अतीत हैं। जीवों के अज्ञान के कारण ही वे परमात्मा जानने में नहीं आते। जैसे कहीं पर श्रीमद्भगवद्गीता शब्द लिखा हुआ है। जो पढ़ा-लिखा नहीं है उसको तो केवल लकीरें ही दिखती हैं और जो पढ़ा-लिखा है उसको श्रीमद्भगवद्गीता दिखती है। संस्कृत पढ़े हुए को यह शब्द किस धातु से बना हुआ है , इसका क्या अर्थ होता है – यह दिखने लग जाता है। गीता का मनन करने वाले को गीता के गहरे भाव दिखने लग जाते हैं। ऐसे ही जिन मनुष्यों को परमात्मतत्त्व का ज्ञान नहीं है , उनको परमात्मा नहीं दिखते , उनके जानने में नहीं आते परन्तु जिनको परमात्मतत्त्व का ज्ञान हो गया है उनको तो सब कुछ परमात्मा ही परमात्मा दिखते हैं। उस परमात्मतत्त्व को ज्ञेय (13। 12? 17) भी कहा है और अविज्ञेय भी कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है इसलिये वह ज्ञेय है और वह इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता इसलिये वह अविज्ञेय है। सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा को जाननेके लिये यह आवश्यक है कि साधक परमात्मा को सर्वत्र परिपूर्ण मान ले। ऐसा मानना भी जानने की तरह ही है। जैसे (बोध होने पर) ज्ञान (जानने ) को कोई मिटा नहीं सकता । ऐसे ही परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं इस मान्यता (मानने) को कोई मिटा नहीं सकता। जब सांसारिक मान्यताओं – मैं ब्राह्मण हूँ , मैं साधु हूँ आदि को (जो कि अवास्तविक हैं) कोई मिटा नहीं सकता । तब पारमार्थिक मान्यताओं को (जो कि वास्तविक हैं ) कौन मिटा सकता है ? तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक मानना भी एक साधन है। जानने की तरह मानने की भी बहुत महिमा है। परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं – ऐसा दृढ़तापूर्वक मान लेने पर यह मान्यता मान्यतारूप से नहीं रहेगी बल्कि इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से परे जो अत्यन्त सूक्ष्म परमात्मा हैं उनका अनुभव हो जायगा – स्वामी रामसुखदास जी