Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।

 

 

ध्यानेन-ध्यान के द्वारा; आत्मनि-अपने भीतर; पश्यन्ति-देखते हैं; केचित्-कुछ लोग; आत्मानम्-परमात्मा को; आत्मना-मन से; अन्ये – अन्य लोग; सांख्येन-ज्ञान के पोषण द्वारा; योगेन-योग पद्धति द्वारा; कर्म-योगेन-कर्मयोग द्वारा भगवान में एकीकृत होना; च-भी; अपरे–अन्य।

 

 

कुछ लोग शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि या मन से ध्यान के द्वारा, कुछ लोग सांख्य योग या ज्ञान के संवर्धन के द्वारा जबकि कुछ अन्य लोग कर्म योग के द्वारा अपने भीतर स्थित आत्मा अर्थात परमात्मा या परमात्म तत्व को देखते हैं॥13.25॥

 

 

 ‘ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना’ – 5वें अध्याय के 27वें-28वें श्लोकों में छठे अध्याय के 10वें से 28वें श्लोक तक और 8वें अध्याय के 8वें से 14वें श्लोक तक जो सगुण-साकार , निर्गुण-निराकार आदि के ध्यान का वर्णन हुआ है , उस ध्यान में  जिसकी जैसी रुचि , श्रद्धा-विश्वास और योग्यता है उसके अनुसार ध्यान करके कई साधक अपने आप से , अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। जो सम्बन्ध-विच्छेद प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग जानने से होता है वह सम्बन्ध-विच्छेद ध्यान से भी होता है। ध्यान न तो चित्त की मूढ़ वृत्ति में होता है और न क्षिप्त वृत्ति में होता है। ध्यान विक्षिप्त वृत्ति में आरम्भ होता है। चित्त जब स्वरूप में एकाग्र हो जाता है तब समाधि हो जाती है। एकाग्र होने पर चित्त निरुद्ध हो जाता है। इस तरह जिस अवस्था में चित्त निरुद्ध हो जाता है। उस अवस्था में चित्त संसार , शरीर , वृत्ति , चिन्तन आदि से भी उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपने आप से अपने आप में अपना अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है (गीता 6। 19 20)। ‘अन्ये सांख्येन योगेन’ – दूसरे अध्याय के 11वें से 30वें  ,श्लोक तक चौथे अध्याय के 33वें से 39वें श्लोक तक पाँचवें अध्याय के 8वें , 9वें तथा 13वें से 26वें श्लोक तक और 12वें अध्याय के चौथे-पाँचवें आदि श्लोकों में कहे हुए सांख्ययोग के द्वारा कई साधक अपने आप से अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।सांख्ययोग नाम है विवेक का। उस विवेक के द्वारा सत – असत का निर्णय हो जाता है कि सत नित्य है , सर्वव्यापक है , स्थिर स्वभाववाला है? अचल है? अव्यक्त है? अचिन्त्य है और असत् चल है? अनित्य है? विकारी है? परिवर्तनशील है। ऐसे विवेकविचारसे सांख्ययोगी प्रकृति और उसके कार्यसे बिलकुल अलग हो जाता है और अपनेआपसे अपनेआपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है। ‘कर्मयोगेन चापरे’ – दूसरे अध्याय के 47वें से 53वें श्लोक तक तीसरे अध्याय के 7वें से 19वें श्लोक तक चौथे अध्याय के 16वें से 32वें श्लोक तक पाँचवें अध्याय के छठे-सातवें आदि श्लोकों में कहे हुए कर्मयोग के द्वारा कई साधक अपने आप से अपने में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। जो सम्बन्ध-विच्छेद प्रकृति और पुरुष को अलग-अलग जानने से होता है वह सम्बन्ध-विच्छेद कर्मयोग से भी होता है। कर्मयोगी जो कुछ भी करे वह केवल संसार के हित के लिये ही करे। यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत आदि जो कुछ भी करे वह सब मात्र प्राणियों के कल्याण के लिये ही करे अपने लिये नहीं। ऐसा करने से स्वयं का उन क्रियाओं से , पदार्थ , शरीर आदि से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और अपने आप से अपनेमें परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। मनुष्य ने स्वाभाविक ही अपने में देह को स्वीकार किया है , माना है। इस मान्यता को दूर करने के लिये अपने में परमात्मा को देखना अर्थात् देह की जगह अपने में परमात्मा को मानना बहुत आवश्यक है। अपने में परमात्मा को देखना करणनिरपेक्ष होता है। करणसापेक्ष ज्ञान प्रकृति के सम्बन्धसे होता है। इसलिये साधक किसी करण के द्वारा परमात्मामें स्थित नहीं होता बल्कि स्वयं ही स्थित होता है स्वयं की परमात्मा में स्थिति किसी करण के द्वारा हो ही नहीं सकती – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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