Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।।13.28।।
समम्-समभाव से; सर्वेषु-सब में; भूतेषु-जीवों में; तिष्ठन्तम्-निवास करते हुए; परम ईश्वरम्-परमात्मा; विनश्यत्सु-नाशवानों में; अविनश्यन्तम्-अविनाशी; यः-जो; पश्यति-देखता है; सः-वही; पश्यति–अनुभव करते हैं।
जो सभी जीवों में परमात्मा को आत्मा के साथ देखता है और जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है केवल वही वास्तव में समझता है अर्थात जो समस्त नाशवान जीवों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही वास्तव में सत्य देखता है॥13.28॥
समं सर्वेषु भूतेषु – परमात्मा को सम्पूर्ण प्राणियों में सम कहने का तात्पर्य है कि सभी प्राणी विषम हैं अर्थात् स्थावर-जङ्गम हैं , सात्त्विक-राजस-तामस हैं , आकृति से छोटे-बड़े , लम्बे-चौड़े हैं , नाना वर्ण वाले हैं – इस प्रकार तरह-तरह के जितने भी प्राणी हैं उन सब प्राणियों में परमात्मा समरूप से स्थित हैं। वे परमात्मा किसी में छोटे-बड़े , कम-ज्यादा नहीं हैं। पहले इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्रज्ञ के साथ अपनी एकता बताते हुए कहा था कि तू सम्पूर्ण प्राणियों में क्षेत्रज्ञ मेरे को समझ। उसी बात को यहाँ कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियों में परमात्मा समरूप से स्थित हैं। तिष्ठन्तम् – सम्पूर्ण प्राणी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय – इन तीन अवस्थाओं में जाते हैं । सर्ग -प्रलय , महासर्ग – महाप्रलय में जाते हैं , ऊँच-नीच गतियों में , योनियों में जाते हैं अर्थात् सभी प्राणी किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहते परन्तु परमात्मा उन सब अस्थिर प्राणियों में नित्य-निरन्तर एकरूप से स्थित रहते हैं। परमेश्वरम् – सभी प्राणी अपने को किसी न किसी का ईश्वर अर्थात् मालिक मानते ही रहते हैं परन्तु परमात्मा उन सभी प्राणियों के तथा सम्पूर्ण जड-चेतन संसार के परम ईश्वर हैं। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति – प्रतिक्षण विनाश की तरफ जाने वाले प्राणियों में विनाशरहित , सदा एकरूप रहने वाले परमात्मा को जो निर्विकार देखता है वही वास्तव में सही देखता है। तात्पर्य है कि जो परिवर्तनशील शरीर के साथ अपने आप को देखता है उसका देखना सही नहीं है किन्तु जो सदा ज्यों के त्यों रहने वाले परमात्मा के साथ अपने आपको अभिन्न रूप से देखता है उसका देखना ही सही है। पहले इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा था कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही मेरे मत में ज्ञान है । उसी बात को यहाँ कहते हैं कि जो नष्ट होने वाले प्राणियों में परमात्मा को नाशरहित और सम देखता है उसका देखना (ज्ञान) ही सही है। तात्पर्य है कि जैसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग में क्षेत्र में तो हरदम परिवर्तन होता है पर क्षेत्रज्ञ ज्यों का त्यों ही रहता है । ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न और नष्ट होते हैं पर परमात्मा सब अवस्थाओं में समान रूप से स्थित रहते हैं। पीछे के (26वें) श्लोक में भगवान ने यह बताया कि जितने भी प्राणी पैदा होते हैं वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही पैदा होते हैं परन्तु उन दोनों में क्षेत्र तो किसी भी क्षण स्थिर नहीं रहता और क्षेत्रज्ञ एक क्षण भी नहीं बदलता। अतः क्षेत्रज्ञ से क्षेत्र का जो निरन्तर वियोग हो रहा है उसका अनुभव कर ले। इस (27वें) श्लोक में भगवान यह बताते हैं कि उत्पन्न और नष्ट होने वाले सम्पूर्ण विषम प्राणियों में जो परमात्मा नाशरहित और समान रूप से स्थित रहते हैं उनके साथ अपनी एकता का अनुभव कर ले। अब भगवान नष्ट होने वाले सम्पूर्ण प्राणियों में अविनाशी परमात्मा को देखने का फल बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी