Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।13.29।।

 

 

समम्-समान रूप से; पश्यन् – देखते हुए; हि-निश्चय ही; सर्वत्र – सभी स्थानों में; समवस्थितम्-एक समान रूप से स्थित; ईश्वरम्-परमात्मा के रूप में भगवान; न-नहीं; हिनस्ति– हिंसा ; आत्मना-मन से, स्वयं के द्वारा ; आत्मानम्-आत्मा को, स्वयं को ; ततः-तब; याति–पहुँचता है; पराम्-दिव्य; गतिम्- परम गति /गन्तव्य को।

 

 

निश्चय ही, वह जो सब स्थानों पर सभी जीवों में सम भाव से या समान रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है वह आत्मा के द्वारा आत्मा का नाश नहीं करता है अर्थात वह स्वयं के द्वारा स्वयं का नाश नहीं करता और इससे वह परम गति को प्राप्त होता है ॥13.29॥

 

समं पश्यन्हि ৷৷. हिनस्त्यात्मनात्मानम् – जो मनुष्य स्थावर-जङ्गम , जड-चेतन प्राणियों में , ऊँच-नीच योनियों में , तीनों लोकों में समान रीति से परिपूर्ण परमात्मा को देखता है अर्थात् उस परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। जो शरीर के साथ तादात्म्य करके शरीर के बढ़ने से अपना बढ़ना और शरीर के घटने से अपना घटना , शरीर के बीमार होने से अपना बीमार होना और शरीर के नीरोग होने से अपना नीरोग होना , शरीर के जन्मने से अपना जन्मना और शरीर के मरने से अपना मरना मानता है तथा शरीर के विकारों को अपने विकार मानता है वह अपने आप से अपनी हत्या करता है अर्थात् अपने को जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है परन्तु जिसकी दृष्टि शरीर की तरफ से हटकर केवल सर्वव्यापक , सबके शासक परमात्मा की तरफ हो जाती है वह फिर अपनी हत्या नहीं करता अर्थात् जन्म-मरण के चक्कर में नहीं जाता । अपने में संसार और शरीर के विकारों का अनुभव नहीं करता। वास्तव में अपने आपकी (स्वरूप की) हत्या अर्थात् अभाव कभी कोई कर ही नहीं सकता और अपना अभाव कभी हो भी नहीं सकता तथा अपना अभाव करना कोई चाहता भी नहीं। वास्तव में नाशवान शरीर के साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है , अपना पतन करना है , अपने आपको जन्म-मरण में ले जाना है। ‘ततो याति परां गतिम् ‘ – शरीर के साथ तादात्म्य करके जो ऊँच-नीच योनियों में भटकता था , बार-बार जन्मता-मरता था वह जब परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव कर लेता है तब वह परमगति को अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।मर्मिक बात – परमात्मतत्त्व सब देश में है , सब काल में है , सम्पूर्ण व्यक्तियों में है , सम्पूर्ण वस्तुओं में है , सम्पूर्ण घटनाओं में है , सम्पूर्ण परिस्थितियों में है , सम्पूर्ण क्रियाओं में है। वह सबमें एक रूप से , समान रीति से ज्यों का त्यों परिपूर्ण है। अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा ? जहाँ चाहो वहीं प्राप्त कर लो। वास्तव में इस संसार का जो है पना दिखता है वह संसार का नहीं है। संसार तो एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। इसमें केवल परिवर्तन ही परिवर्तन है। यह केवल परिवर्तन का ही पुञ्ज है। जैसे पंखा तेजी से घूमता है तो एक चक्र दिखता है पर वास्तव में वहाँ चक्र नहीं है बल्कि पंखे की ताड़ी ही चक्ररूप से दिखती है। ऐसे ही यह संसार नहीं होते हुए भी है रूप से दिखता है। वास्तव में एक परमात्मतत्त्व ही है रूप से विद्यमान है। विचार करें कि अभी जितने शरीर आदि दिखते हैं ये सौ वर्ष पहले थे क्या ? और सौ वर्ष बाद रहेंगे क्या ? ये पहले भी नहीं थे और अन्त में भी नहीं रहेंगे । अतः ये बीच में भी नहीं हैं परन्तु परमात्मा सृष्टि के पैदा होने से पहले भी था , सृष्टि के लीन होने के बाद भी रहेगा । अतः परमात्मा सृष्टि के समय भी ज्यों का त्यों परिपूर्ण है। जो पहले भी नहीं था , बाद में भी नहीं रहेगा , वह अभी भी नहीं है और जो पहले भी था , बाद में भी रहेगा , वह अभी भी है। अतः संसार का जो है-पन दिखता है यह गलती है। परमात्मतत्त्व ही है-रूप से दिखता है । उस परमात्मतत्त्व की सत्यता से ही यह असत संसार मोह (मूर्खता) के कारण सत्य की तरह दिखता है – ‘जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।। ‘ (मानस 1। 117। 4) यदि मोह नहीं होगा तो यह संसार नहीं दिखेगा बल्कि एक परमात्मतत्त्व ही दिखेगा – वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। कारण कि परमात्मा ही था , परमात्मा ही रहेगा , बीच में दूसरा कहाँ से आयेगा ? सोने के जितने गहने हैं उनमें पहले सोना ही था , फिर सोना ही रहेगा । अतः बीच में सोने के सिवाय दूसरा कहाँ से आयेगा ? गहना तो केवल (रूप , आकृति , उपयोग आदि को लेकर) कहने के लिये है तत्त्वतः तो सोना ही है। ऐसे ही संसार केवल कहने के लिये है तत्त्वतः तो परमात्मा ही है। उस परमात्मा का अनुभव करने में ही मनुष्य-जन्म की सफलता है। है (परमात्मा) का अनुभव न करके नहीं (संसार) में उलझ जाना मनुष्यता नहीं है बल्कि पशुता है। इस पशुता का त्याग करना है – पशुबुद्धिमिमां जहि (श्रीमद्भा0 12। 5। 2)। इसलिये भगवान कहते हैं कि जो नष्ट होने वाले प्राणियों में नष्ट न होने वाले परमात्मा को देखता है उसका देखना सही है परन्तु जो नष्ट होने वाले को देखता है और नष्ट न होने वाले को नहीं देखता वह आत्मघाती है – ‘योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा।। ‘ (महाभारत? उद्योग0 42। 37) जो अन्य प्रकार का (अविनाशी) होते हुए भी आत्मा को अन्य प्रकार का (विनाशी) मानता है उस आत्मघाती चोर ने कौन सा पाप नहीं किया जो नाशवान संसार को न देखकर सब जगह समानरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व को देखता है वह आत्मघाती नहीं होता अर्थात् वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता इसलिये वह परमगति को प्राप्त हो जाता है परन्तु जो सब जगह परिपूर्ण परमात्मतत्त्व को न देखकर संसारशरीर को देखता है वह आत्मघाती परमगति को न प्राप्त होकर बार-बार जन्मता-मरता रहता है , दुःख पाता रहता है। इसलिये मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे , अपना पतन न करे (गीता 6। 5)। जैसे दर्पण में मुख नहीं होनेपर भी मुख दिखता है और स्वप्न में हाथी नहीं होने पर भी हाथी दिखता है , ऐसे ही संसार नहीं होने पर भी संसार दिखता है। अगर संसार की तरफ दृष्टि न रहे तो संसार है रूप से नहीं दिखेगा। परमात्मा ही है रूप से दिख रहा है – इस बात को साधक दृढ़ता से मान ले फिर चाहे वह अभी न दिखे पर बाद में दिखने लग जायगा। जैसे अभी साधक वृन्दावन में बैठा है तो उसे वृन्दावन को याद नहीं करना पड़ता। सोते समय , भोजन करते समय , हरेक कार्य करते समय वह वृन्दावन को याद नहीं करता परन्तु मैं वृन्दावन में हूँ – इस बात में उसको सन्देह नहीं होता। वह बिना याद किये याद रहता है। ऐसे ही अभी भले ही परमात्मा न दिखे पर साधक ऐसा दृढ़ता से मान ले कि है-रूप से तो केवल परमात्मा ही है , संसार नहीं है तो बाद में उसको ऐसा अनुभव होने लग जायगा। कारण कि मिथ्या वस्तु कब तक टिकी रहेगी और सत्य वस्तु कब तक छिपी रहेगी ? इसी अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग की बात बतायी। इस संयोग से छूटने के दो उपाय हैं – परमात्मा के साथ अपने स्वतःसिद्ध सम्बन्ध को पहचानना और प्रकृति (शरीर) से अपने माने हुए सम्बन्ध को तोड़ना। 27वें-28वें श्लोकों में परमात्मा के साथ सम्बन्ध को पहचानने की बात बता दी। अब आगे के दो श्लोकों में प्रकृति से सम्बन्ध तोड़ने की बात बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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