Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय

 

 

Bhagawad gita chapter 13प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।

यः पश्यति तथाऽऽत्मानमकर्तारं स पश्यति।।13.30।।

 

 

प्रकृत्या – प्राकृतिक शक्ति द्वारा; एव–वास्तव में; च-भी; कर्माणि-कर्म; क्रियमाणानि–निष्पादित किये गये; सर्वशः-सभी प्रकार से; यः-जो; पश्यति-देखता है; तथा—भी; आत्मानम् – देहधारी आत्मा को; अकर्तारम्-अकर्ता ; सः-वह; पश्यति-देखता है।

 

 

जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है अर्थात जो इस प्रकार देखता है कि शरीर के समस्त कार्य प्राकृत शक्ति द्वारा सम्पन्न होते हैं और आत्मा को अकर्ता देखता है अर्थात यह देखता है कि देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती और आत्मा या स्वयं को अकर्ता देखता है , वही वास्तव में यथार्थ देखता है॥13.30॥

 

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः – वास्तव में चेतन तत्त्व स्वतः स्वाभाविक निर्विकार , सम और शान्तरूप से स्थित है। उस चेतन तत्त्व (परमात्मा) की शक्ति प्रकृति स्वतः स्वाभाविक क्रियाशील है। उसमें नित्यनिरन्तर क्रिया होती रहती है – ‘प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।’ यद्यपि प्रकृति को सक्रिय और अक्रिय – दो अवस्थाओं वाली (सर्ग अवस्था में सक्रिय और प्रलय अवस्था में अक्रिय ) कहते हैं तथापि सूक्ष्म विचार करें तो प्रलयअवस्थामें भी उसकी क्रियाशीलता मिटती नहीं है। कारण कि जब प्रलय का आरम्भ होता है तब प्रकृति सर्ग अवस्था की तरफ चलती है। इस प्रकार प्रकृति में सूक्ष्म क्रिया चलती ही रहती है। प्रकृति की सूक्ष्म क्रिया को ही अक्रिय अवस्था कहते हैं क्योंकि इस अवस्था में सृष्टि की रचना नहीं होती परन्तु महासर्ग में जब सृष्टि की रचना होती है तब सर्ग के आरम्भ से सर्ग के मध्य तक प्रकृति सर्ग की तरफ चलती है और सर्ग का मध्य भाग आने पर प्रकृति प्रलय की तरफ चलती है। इस प्रकार प्रकृति की स्थूल क्रिया को सक्रिय अवस्था कहते हैं। अगर प्रलय और महाप्रलय में प्रकृति को अक्रिय माना जाय तो प्रलय-महाप्रलय का आदि , मध्य और अन्त कैसे होगा ? ये तीनों तो प्रकृति में सूक्ष्म क्रिया होने से ही होते हैं। अतः सर्ग अवस्था की अपेक्षा प्रलय अवस्था में अपेक्षाकृत अक्रियता है सर्वथा अक्रियता नहीं है। सूर्य का उदय होता है फिर वह मध्य में आ जाता है और फिर वह अस्त हो जाता है तो इससे मालूम होता है कि प्रातः सूर्योदय होने पर प्रकाश मध्याह्न तक बढ़ता जाता है और मध्याह्न से सूर्यास्त तक प्रकाश घटता जाता है। सूर्यास्त होने के बाद आधी रात तक अन्धकार बढ़ता जाता है और आधी रात से सूर्योदय तक अन्धकार घटता जाता है। वास्तव में प्रकाश और अन्धकार की सूक्ष्म सन्धि मध्याह्न और मध्यरात ही है पर वह दिखती है सूर्योदय और सूर्यास्तके समय। इस दृष्टि से प्रकाश और अन्धकार की क्रिया मिटती नहीं बल्कि निरन्तर होती ही रहती है। ऐसे ही सर्ग और प्रलय , महासर्ग और महाप्रलय में भी प्रकृति में क्रिया निरन्तर होती ही रहती है (टिप्पणी प0 704)। इस क्रियाशील प्रकृति के साथ जब यह पुरुष सम्बन्ध जोड़ लेता है तब शरीर द्वारा होने वाली स्वाभाविक क्रियाएँ (तादात्म्य के कारण) अपने में प्रतीत होने लगती हैं। यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति – प्रकृति और उसके कार्य स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर में खाना-पीना , चलना-फिरना , उठना- बैठना , घटना-बढ़ना , हिलना-डुलना , सोना-जागना , चिन्तन करना , समाधिस्थ होना आदि जो कुछ भी क्रियाएँ होती हैं वे सभी प्रकृति के द्वारा ही होती हैं । स्वयं के द्वारा नहीं क्योंकि स्वयं में कोई क्रिया होती ही नहीं – ऐसा जो देखता है अर्थात् अनुभव करता है वही वास्तव में ठीक देखता है। कारण कि ऐसा देखने से अपने में अकर्तृत्व (अकर्तापन) का अनुभव हो जाता है।यहाँ क्रियाओं को प्रकृति के द्वारा होने वाली बताया है , कहीं गुणों के द्वारा होने वाली बताया है और कहीं इन्द्रियों के द्वारा होने वाली बताया है – ये तीनों बातें एक ही हैं। प्रकृति सबका कारण है , गुण प्रकृति के कार्य हैं और गुणों का कार्य इन्द्रियाँ हैं। अतः प्रकृति , गुण और इन्द्रियाँ – इनके द्वारा होने वाली सभी क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा होने वाली ही कही जाती हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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