Bhagavad Geeta chapter 13

 

 

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Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह

अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच

 

ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय

 

 

Bhagavad Geeta chapter 13 महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।

इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥13.6

 

 

महाभूतानि–पंच महातत्त्व, पंच महाभूत ; अहंकारः-अभिमान; बुद्धिः-बुद्धि; अव्यक्तम्-अप्रकट मौलिक पदार्थ, अव्यक्त मूल तत्व ; एव-वास्तव में; च-भी; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; दशएकम्-ग्यारह; च-भी; पञ्च-पाँच; च-भी; इन्द्रियगोचराः-इन्द्रियों के विषय; 

 

 

कर्म क्षेत्र पाँच महातत्त्वों ( पांच महाभूतों – अग्नि , जल , आकाश , पृथ्वी , वायु ) , समष्टि अहंकार, समष्टि बुद्धि ( महतत्व ) और अव्यक्त मूल तत्त्व ( प्रकृति ) , ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ) से निर्मित है अर्थात यह चौबीस तत्त्वों वाला क्षेत्र है ৷৷13.6৷৷

 

अव्यक्तमेव च – अव्यक्त नाम मूल प्रकृति का है। मूल प्रकृति समष्टि बुद्धि का कारण होने से और स्वयं किसी का भी कार्य न होने से केवल प्रकृति ही है। बुद्धिः – यह पद समष्टि बुद्धि अर्थात् महत्तत्त्व का वाचक है। इस बुद्धि से अहंकार पैदा होता है इसलिये यह प्रकृति है और मूल प्रकृति का कार्य होने से यह विकृति है। तात्पर्य है कि यह बुद्धि प्रकृति-विकृति है। अहंकारः – यह पद समष्टि अहंकार का वाचक है। इसको अहंभाव भी कहते हैं। पञ्चमहाभूत का कारण होने से यह अहंकार प्रकृति है और बुद्धि का कार्य होने से यह विकृति है। तात्पर्य है कि यह अहंकार प्रकृति-विकृति है। महाभूतानि – पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश – ये पाँच महाभूत हैं। महाभूत दो प्रकार के होते हैं – पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत। एक-एक महाभूत के पाँच विभाग होकर जो मिश्रण होता है उसको पञ्चीकृत महाभूत कहते हैं (टिप्पणी प0 673)। इन पाँच महाभूतों के विभाग न होने पर इनको अपञ्चीकृत महाभूत कहते हैं। यहाँ इन्हीं अपञ्चीकृत महाभूतों का वाचक महाभूतानि पद है। इन महाभूतों को पञ्चतन्मात्राएँ तथा सूक्ष्म-महाभूत भी कहते हैं। दस इन्द्रियाँ , एक मन और शब्दादि पाँच विषयों के कारण होने से ये महाभूत प्रकृति हैं और अहंकार के कार्य होने से ये विकृति हैं। तात्पर्य है कि ये पञ्चमहाभूत प्रकृति-विकृति हैं। इन्द्रियाणि दश – श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और घ्राण – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक् , पाणि , पाद , उपस्थ और पायु – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। ये दसों इन्द्रियाँ अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी का भी कारण न होने से केवल विकृति ही हैं। एकं च – अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी का भी कारण न होने से मन केवल विकृति ही है। पञ्च चेन्द्रियगोचराः – शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध – ये (पाँच ज्ञानेन्द्रियों के ) पाँच विषय हैं। अपञ्चीकृत महाभूतों से पैदा होने से और स्वयं किसी  के भी कारण न होनेसे ये पाँचों विषय केवल विकृति ही हैं। इन सबका निष्कर्ष यह निकला कि पाँच महाभूत , एक अहंकार और एक बुद्धि – ये सात प्रकृति-विकृति हैं , मूल प्रकृति केवल प्रकृति है और दस इन्द्रियाँ , एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय – ये सोलह केवल विकृति हैं। इस तरह इन चौबीस तत्त्वों के समुदाय का नाम क्षेत्र है। इसी का एक तुच्छ अंश यह मनुष्य-शरीर है जिसको भगवान ने पहले श्लोक में ‘इदं शरीरम्’ और तीसरे श्लोक में ‘तत्क्षेत्रम्’ पद से कहा है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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