Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥13.7
इच्छा-कामना; द्वेषः-घृणा; सुखम्-सुख, दुःखम्-दुख; सङ्घात:- स्थूल देह , शरीर ; चेतना-शरीर में चेतना; धृतिः-इच्छा शक्ति; एतत्-सब; क्षेत्रम्-कर्मों का क्षेत्र; समासेन-सम्मिलित करना; स विकारम् – विकारों सहित; उदात्रतम्-कहा गया।
श्रीकृष्ण अब क्षेत्र के गुणों और उसके विकारों को स्पष्ट करते हैं। इच्छा, द्वेष ( घृणा ) , सुख, दुःख, शरीर ( स्थूल देह ) , चेतना ( शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की प्राण शक्ति या चेतन-शक्ति ) और इच्छा शक्ति ये सब क्षेत्र ( कर्म क्षेत्र) में सम्मिलित है । इस प्रकार विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है ৷৷13.7৷৷
‘इच्छा ‘ – अमुक वस्तु , व्यक्ति, परिस्थिति आदि मिले – ऐसी जो मन में चाहना रहती है उसको इच्छा कहते हैं। क्षेत्र के विकारों में भगवान सबसे पहले इच्छारूप विकार का नाम लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इच्छा मूल विकार है क्योंकि ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है जो सांसारिक इच्छाओं से पैदा न होता हो अर्थात् सम्पूर्ण पाप और दुःख सांसारिक इच्छाओं से ही पैदा होते हैं। ‘द्वेषः’ – कामना और अभिमान में बाधा लगने पर क्रोध पैदा होता है। अन्तःकरण में उस क्रोध का जो सूक्ष्म रूप रहता है उसको द्वेष कहते हैं। यहाँ ‘द्वेषः’ पद के अन्तर्गत क्रोध को भी समझ लेना चाहिये। ‘सुखम् ‘ – अनुकूलता के आने पर मन में जो प्रसन्नता होती है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति जो मन को सुहाती है उसको ‘सुख’ कहते हैं। ‘दुःखम्’ – प्रतिकूलता के आने पर मन में जो हलचल होती है अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति जो मन को सुहाती नहीं है उसको ‘दुःख’ कहते हैं। ‘संघातः’ – चौबीस तत्त्वों से बने हुए शरीररूप समूह का नाम ‘संघात’ है। शरीर का उत्पन्न होकर सत्तारूप से दिखना भी विकार है तथा उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार है। ‘चेतना’ – चेतना नाम प्राणशक्ति का है अर्थात् शरीर में जो प्राण चल रहे हैं उसका नाम चेतना है। इस चेतना में परिवर्तन होता रहता है जैसे – सात्त्विक वृत्ति आने पर प्राणशक्ति शान्त रहती है और चिन्ता , शोक , भय , उद्वेग आदि होने पर प्राणशक्ति वैसी शान्त नहीं रहती , क्षुब्ध हो जाती है। यह प्राणशक्ति निरन्तर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकाररूप ही है। साधारण लोग प्राण वालों को ‘चेतन’ और निष्प्राण वालों को ‘अचेतन’ कहते हैं। इस दृष्टि से यहाँ प्राणशक्ति को चेतना कहा गया है। ‘धृतिः’ – ‘धृति’ नाम धारणशक्ति का है। यह धृति भी बदलती रहती है। मनुष्य कभी धैर्य को धारण करता है और कभी (प्रतिकूल परिस्थिति आने पर) धैर्य को छोड़ देता है। कभी धैर्य ज्यादा रहता है और कभी धैर्य कम रहता है। मनुष्य कभी अच्छी बात को धारण करता है और कभी विपरीत बात को धारण करता है। अतः धृति भी क्षेत्र का विकार है।18वें अध्याय के 33वें से 35वें श्लोक तक धृति के सात्त्विकी , राजसी और तामसी – इन तीन भेदों का वर्णन किया गया है। परमात्मा की तरफ चलने में सात्त्विकी धृति की बड़ी आवश्यकता है।] ‘एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ‘ – जैसे पहले श्लोक में ‘इदं शरीरम्’ कह कर व्यष्टि शरीर से अपने को अलग देखने के लिये कहा । ऐसे ही दृश्य (क्षेत्र और उसमें होने वाले विकार) से द्रष्टा को अलग दिखाने के लिये यहाँ ‘एतत्’ पद आया है। 5वें श्लोक में भगवान ने समष्टि संसार का वर्णन किया और यहाँ छठे श्लोक में व्यष्टि शरीर के विकारों का वर्णन किया क्योंकि समष्टि संसार में इच्छा-द्वेषादि विकार होते ही नहीं। तात्पर्य यह है कि व्यष्टि शरीर समष्टि संसा रसे और समष्टि संसार व्यष्टि शरीर से अलग नहीं है अर्थात् ये दोनों एक हैं। जैसे इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने क्षेत्रज्ञ के साथ अपनी एकता बतायी। ऐसे ही यहाँ व्यष्टि शरीर और उसमें होने वाले विकारों की समष्टि संसार के साथ एकता बताते हैं। आगे 21वें श्लोक में भगवान ने पुरुष की स्थिति शरीर में न बताकर प्रकृति में बतायी है – ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि।’ इससे भी सिद्ध होता है कि पुरुष की स्थिति (सम्बन्ध) व्यष्टि शरीर में हो जाने से उसकी स्थिति समष्टि प्रकृति में हो जाती है क्योंकि व्यष्टि शरीर और समष्टि प्रकृति – दोनों एक ही हैं। वास्तव में देखा जाय तो व्यष्टि है ही नहीं केवल समष्टि ही है। व्यष्टि केवल भूल से मानी हुई है। जैसे समुद्र की लहरों को समुद्र से अलग मानना भूल है । ऐसे ही व्यष्टि शरीर को समष्टि संसार से अलग (अपना ) मानना भूल ही है। विशेष बात – क्षेत्रज्ञ जब अविवेक से क्षेत्र के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब क्षेत्र में इच्छा-द्वेषादि विकार पैदा हो जाते हैं। क्षेत्रज्ञ का वास्तविक स्वरूप तो सर्वथा निर्विकार ही है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से पैदा होने वाले विकार सर्वथा मिटाये जा सकते हैं क्योंकि क्षेत्रज्ञ का क्षेत्र के साथ संयोग केवल माना हुआ है। इस माने हुए संयोग को मिटाने के लिये भगवान इस अध्याय के पहले श्लोक में शरीर को अपने से पृथक देखने के लिये और फिर दूसरे श्लोक में परमात्मा से अपने नित्यसंयोग (एकता) का अनुभव करने के लिये कहते हैं। ऐसा अनुभव होने पर क्षेत्र के साथ मानी हुई एकता का सर्वथा अभाव हो जाता है और फिर विकार उत्पन्न हो ही नहीं सकते। बोध होने पर अर्थात् क्षेत्र (शरीर) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर इच्छा और द्वेष सदा के लिये सर्वथा मिट जाते हैं। सुख और दुःख अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का ज्ञान तो होता है पर उससे अन्तःकरण में कोई विकार पैदा नहीं होता अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होने पर जीवन्मुक्त महापुरुष सुखी-दुःखी नहीं होता। सुख-दुःख का ज्ञान होना दोषी नहीं है बल्कि उसका असर पड़ना (विकार होना) दोषी है (टिप्पणी प0 675)। जीवन्मुक्त महापुरुष का संघात अर्थात् शरीर से किञ्चिन्मात्र भी मैं-मेरेपन का सम्बन्ध न रहने के कारण उसका कहा जाने वाला शरीर यद्यपि महान पवित्र हो जाता है तथापि प्रारब्ध के अनुसार उसका यह शरीर रहता ही है। जब तक शरीर रहता है तब तक चेतना (प्राणशक्ति) भी रहती है। परिश्रम होने पर उसमें चञ्चलता आती है नहीं तो वह शान्त रहती है। साधनावस्था में जो सात्त्विकी धृति थी वह बोध होने पर भी रहती है परन्तु अन्तःकरण से तादात्म्य न रहने से तत्त्वज्ञ महापुरुष का चेतना और धृतिरूप विकारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। तात्पर्य यह हुआ कि शरीर के साथ तादात्म्य होने से जो विकार होते हैं वे विकार बोध होने पर नहीं होते। संघात , चेतना और धृतिरूप विकारों के रहने पर भी उनका स्वयं पर कुछ भी असर नहीं पड़ता। शरीर के साथ तादात्म्य कर लेने से ही इच्छा , द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उन विकारों का स्वयं पर असर पड़ता है। इसलिये भगवान शरीर के साथ किये हुए तादात्म्य को मिटाने के लिये आवश्यक बीस साधनों का ज्ञान के नाम से आगे के पाँच श्लोकों में वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी