Bhagavad Gita Chapter 11

 

 

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VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 

विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह

अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग

 

 

35 – 46  भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना

 

 

Bhagwad gita Chapter 11 in hindiअर्जुन उवाच

स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्‍घा: ॥11.36॥

 

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; स्थाने–यह उचित ही है, योग्य ही है ; हृषिकेश -हे इन्द्रियों के स्वामी, श्रीकृष्ण; तव – आपके; प्रकीर्त्या – यश; जगत्-सारा संसार; प्रहृष्यति–हर्षित होना; अनुरश्यते-आकृष्ट होना; च-तथा; रक्षांसि-असुरगण; भीतानि–भयातुर; दिश:-समस्त दिशाओं में; द्रवन्ति-भागना; सर्वे – सभी; नमस्यन्ति-नमस्कार करते हैं; च-भी; सिद्धसड्घा:-सिद्धपुरुष, सिद्ध महात्मा , सिद्धगण ।

 

अर्जुन बोले- हे अन्तर्यामिन्! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण , श्रवण , यश गान , लीला और प्रभाव के कीर्तन से सम्पूर्ण जगत अत्यंत हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है अर्थात प्रेम से परिपूर्ण हो रहा है तथा असुरगण आपसे भयभीत होकर समस्त  दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय आपको नमस्कार कर रहे हैं॥11.36॥

 

[संसार में यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति अत्यन्त भयभीत हो जाता है उससे बोला नहीं जाता। अर्जुन भगवान का अति उग्र रूप देखकर अत्यन्त भयभीत हो गये थे। फिर उन्होंने इस (36वें ) श्लोक से लेकर 46वें श्लोक तक भगवान की स्तुति कैसे की ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि अर्जुन भगवान के अत्यन्त उग्र (भयानक ) विश्वरूप को देखकर भयभीत हो रहे थे तथापि वे भयभीत होने के साथ-साथ हर्षित भी हो रहे थे जैसा कि अर्जुन ने आगे कहा है – ‘अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे’ (11। 45)। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे जिससे कि वे भगवान की स्तुति भी न कर सकें।] हृषीकेश – इन्द्रियों का नाम हृषीक है और उनके ईश अर्थात् मालिक भगवान हैं। यहाँ इस सम्बोधन का तात्पर्य है कि आप सबके हृदय में विराजमान रहकर इन्द्रियों और अन्तःकरण आदि को सत्तास्फूर्ति देने वाले हैं। ‘तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ‘ – संसार से विमुख होकर आपको प्रसन्न करने के लिये भक्त लोग आपके नामों का , गुणों का कीर्तन करते हैं , आपकी लीला के पद गाते हैं , आपके चरित्रों का कथन और श्रवण करते हैं तो इससे सम्पूर्ण जगत हर्षित होता है। तात्पर्य यह है कि संसार की तरफ चलने से तो सबको जलन होती है , परस्पर राग-द्वेष पैदा होते हैं पर जो आपके सम्मुख होकर आपका भजन-कीर्तन करते हैं उनके द्वारा मात्र जीवों को शान्ति मिलती है , मात्र जीव प्रसन्न हो जाते हैं , उन जीवों को पता लगे चाहे न लगे पर ऐसा होता है। जैसे भगवान अवतार लेते हैं तो सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम , जड-चेतन जगत हर्षित हो जाता है अर्थात् वृक्ष , लता आदि स्थावर देवता , मनुष्य , ऋषि , मुनि , किन्नर , गन्धर्व , पशु , पक्षी आदि जङ्गम नदी , सरोवर आदि जड – सब के सब प्रसन्न हो जाते हैं। ऐसे ही भगवान के नाम , लीला , गुण आदि के कीर्तन का सभी पर असर पड़ता है और सभी हर्षित होते हैं।भगवान के नामों और गुणों का कीर्तन करने से जब मनुष्य हर्षित हो जाते हैं अर्थात् उनका मन भगवान में तल्लीन हो जाता है तब (भगवान की तरफ वृत्ति होने से ) उनका भगवान में अनुराग और प्रेम हो जाता है। ‘रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति ‘ – जितने राक्षस हैं , भूत , प्रेत , पिशाच हैं वे सब के सब आपके नामों और गुणों का कीर्तन करने से आपके चरित्रों का पठन-कथन करने से भयभीत होकर भाग जाते हैं (टिप्पणी प0 599)। राक्षस , भूत , प्रेत आदि के भयभीत होकर भाग जाने में भगवान के नाम , गुण आदि कारण नहीं हैं बल्कि उनके अपने खुद के पाप ही कारण हैं। अपने पापों के कारण ही वे पवित्रों में महान पवित्र और मङ्गलों में महान् मङ्गलस्वरूप भगवान के गुणगान को सह नहीं सकते और जहाँ गुणगान होता है वहाँ वे टिक नहीं सकते। अगर उनमें से कोई टिक जाता है तो उसका सुधार हो जाता है , उसकी वह दुष्ट योनि छूट जाती है और उसका कल्याण हो जाता है। ‘सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः’ – सिद्धों के , सन्त-महात्माओं के और भगवान की तरफ चलने वाले साधकों के जितने समुदाय हैं वे सब के सब आपके नामों और गुणों के कीर्तन को तथा आपकी लीलाओं को सुनकर आपको नमस्कार करते हैं। यह ध्यान रहे कि यह सब का सब दृश्य भगवान के नित्य , दिव्य , अलौकिक विराट रूप में ही है। उसी में एक-एक से विचित्र लीलाएँ हो रही हैं। स्थाने – यह सब यथोचित ही है और ऐसा ही होना चाहिये तथा ऐसा ही हो रहा है। कारण कि आपकी तरफ चलने से शान्ति , आनन्द और प्रसन्नता होती है , विघ्नों का नाश होता है और आपसे विमुख होने पर दुःख ही दुःख , अशान्ति ही अशान्ति होती है। तात्पर्य है कि आपका अंश जीव आपके सम्मुख होने से सुख पाता है , उसमें शान्ति , क्षमा , नम्रता आदि गुण प्रकट हो जाते हैं और आपके विमुख होने से दुःख पाता है – यह सब उचित ही है। यह जीवात्मा परमात्मा और संसार के बीच का है। यह स्वरूप से तो साक्षात परमात्मा का अंश है और प्रकृति के अंश को इसने पकड़ा है। अब यह ज्यों-ज्यों प्रकृति की तरफ झुकता है त्यों ही त्यों इसमें संग्रह और भोगों की इच्छा बढ़ती है। संग्रह और भोगों की प्राप्ति के लिये यह ज्यों-ज्यों उद्योग करता है त्यों ही त्यों इसमें अभाव , अशान्ति , दुःख , जलन , सन्ताप आदि बढ़ते चले जाते हैं परन्तु संसार से विमुख होकर यह जीवात्मा ज्यों-ज्यों भगवान के सम्मुख होता है त्यों ही त्यों यह आनन्दित होता है और इसका दुःख मिटता चला जाता है। पूर्वश्लोक में ‘स्थाने’ पद से जो औचित्य बताया है उसकी आगे के चार श्लोकों में पुष्टि करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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