The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥2.19॥

 

यः-वह जो; एनम्- इसे; वेत्ति–जानता है; हन्तारम्-मारने वाला; यः-जो; च-और; एनम्-इसे; मन्यते-सोचता है; हतम्-मरा हुआ; उभौ-दोनों; तौ-वे; न -न तो; विजानीतः-जानते हैं; न-न ही; अयम्-यह; हन्ति-मारता है; न-नहीं; हन्यते–मारा जाता है।

 

वह जो यह सोचता है कि आत्मा को मारा जा सकता है या आत्मा मर सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। वास्तव में आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।

 

 ‘य एनं (टिप्पणी प0 59) वेत्ति हन्तारम्’ जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है , वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीरी में कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो पर किसी औजार के बिना वह कार्य नहीं कर सकता – ऐसे ही यह शरीरी शरीर के बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः 13वें अध्याय में भगवान ने कहा है कि सब प्रकार की क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं – ऐसा जो अनुभव करता है वह शरीरी के अकर्तापन का अनुभव करता है (13। 29)। तात्पर्य यह हुआ है कि शरीर में कर्तापन नहीं है पर यह शरीर के साथ तादात्म्य करके सम्बन्ध जोड़कर शरीर से होने वाले क्रियाओं में अपने को कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीर के साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े तो यह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है। ‘यश्चैनं मन्यते हतम्’ जो इसको मरा मानता है वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारने वाला नहीं है – ऐसे ही यह मरने वाला भी नहीं है क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है , परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है वही मर सकता है। ‘उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते’   वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरने वाला मानता है वह भी ठीक नहीं जानता। यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरी को मारने वाला और मरने वाला दोनों मानता है । क्या वह ठीक जानता है ? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तव में ऐसा नहीं है। यह नाश करने वाला भी नहीं है और नष्ट होने वाला भी नहीं है। यह निर्विकार रूप से नित्य-निरन्तर ज्यों का त्यों रहने वाला है। अतः इस शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिये। अर्जुनके सामने युद्ध का प्रसंग होने से ही यहाँ शरीरी को मरने मारने की क्रिया से रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओं से रहित है। यह शरीरी मरने वाला क्यों नहीं है ? इसके उत्तर में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

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