सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥2.24॥
अच्छेद्यः-खण्डित न होने वाला, जिसे काटा या छेदा नहीं जा सकता ; अयम्-यह आत्मा; अदाह्यः- जलाया न जा सकने वाला; अयम्-यह आत्मा; अक्लेद्यः-गीला नहीं किया जा सकता; अशोष्यः-सुखाया न जा सकने वाला; एव–वास्तव में; च-तथा; नित्यः-सनातन; सर्वगतः-सर्वव्यापी; स्थाणुः-अपरिवर्तनीय; अचलः-जड़; अयम्-यह आत्मा; सनातनः-सदा नित्य।
आत्मा अखंडित और अज्वलनशील है, अर्थात इसे न तो छेदा या खंडित किया जा सकता है , न जलाया जा सकता है , न तो गीला किया जा सकता है और न ही सुखाया जा सकता है। यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अपरिर्वतनीय, अचल और अनादि है॥2.24॥
शस्त्र आदि इस शरीरी में विकार क्यों नहीं करते ? यह बात इस श्लोक में कहते हैं। ‘अच्छेद्योऽयम्’ – शस्त्र इस शरीरी का छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रों का अभाव है या शस्त्र चलाने वाला अयोग्य है बल्कि छेदनरूपी क्रिया शरीरी में प्रविष्ट ही नहीं हो सकती । यह छेदन होने के योग्य ही नहीं है। शस्त्र के सिवाय मन्त्र , शाप आदि से भी इस शरीरी का छेदन नहीं हो सकता। जैसे याज्ञवल्क्य के प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण उनके शाप से शाकल्य का मस्तक कटकर गिर गया (बृहदारण्यक0)। इस प्रकार देह तो मन्त्रों से , वाणी से कट सकता है पर देही सर्वथा अछेद्य है। ‘अदाह्योऽयम्’ – यह शरीरी अदाह्य है क्योंकि इसमें जलने की योग्यता ही नहीं है। अग्नि के सिवाय मन्त्र , शाप आदि से भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे दमयन्ती के शाप देने से व्याध बिना अग्नि के जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि , शाप आदि से वही जल सकता है जो जलने योग्य होता है। इस देही में तो दहन क्रिया का प्रवेश ही नहीं हो सकता। ‘अक्लेद्यः’ – यह देही गीला होने योग्य नहीं है अर्थात् इसमें गीला होने की योग्यता ही नहीं है। जल से एवं मन्त्र , शाप , औषधि आदि से यह गीला नहीं हो सकता। जैसे सुनने में आता है कि मालकोश राग के गाये जाने से पत्थर भी गीला हो जाता है , चन्द्रमा को देखने से चन्द्रकान्तमणि गीली हो जाती है परन्तु यह देही राग-रागिनी आदि से गीली होने वाली वस्तु नहीं है। ‘अशोष्यः’ – यह देही अशोष्य है। वायु से इसका शोषण हो जाय यह ऐसी वस्तु नहीं है क्योंकि इसमें शोषण क्रिया का प्रवेश ही नहीं होता। वायु से तथा मन्त्र , शाप , औषधि आदि से यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र का शोषण कर गये – ऐसे इस देही का कोई अपनी शक्ति से शोषण नहीं कर सकता। ‘एव च’ – अर्जुन नाश की सम्भावना को लेकर शोक कर रहे थे। इसलिये शरीरी को अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान ‘एव च’ पदों से विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रिया का प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करने योग्य है ही नहीं। ‘नित्यः’ यह देही नित्य-निरन्तर रहने वाला है। यह किसी काल में नहीं था और किसी काल में नहीं रहेगा – ऐसी बात नहीं है किन्तु यह सब काल में नित्य-निरन्तर ज्यों का त्यों रहने वाला है। ‘सर्वगतः’ यह देही सब काल में ज्यों का त्यों ही रहता है तो यह किसी देश में रहता होगा इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति , वस्तु , शरीर आदि में एकरूप से विराजमान है। ‘अचलः’ यह सर्वगत है तो यह कहीं आता-जाता भी होगा । इस पर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात् इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ इस प्रकार आने-जाने की क्रिया नहीं है। ‘स्थाणुः’ – यह स्थिर स्वभाव वाला है कहीं आताजाता नहीं यह बात ठीक है पर इसमें कम्पन तो होता होगा जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है कहीं भी आताजाता नहीं पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है ऐसे ही इस देहीमें भी हिलनेकी क्रिया होती होगी इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात् इसमें हिलनेकी क्रिया नहीं है। ‘सनातनः’ – यह देही अचल है , स्थाणु है – यह बात तो ठीक है पर यह कभी पैदा भी होता होगा – इस पर कहते हैं कि यह सनातन है , अनादि है , सदा से है। यह किसी समय नहीं था – ऐसा सम्भव ही नहीं है। विशेष बात – यह संसार अनित्य है , एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है परन्तु जो सदा रहने वाला है जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता उस देही की तरफ लक्ष्य कराने में ‘नित्यः’ पद का तात्पर्य है। देखने , सुनने , पढ़ने , समझने में जो कुछ प्राकृत संसार आता है उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘सर्वगतः’ पद का तात्पर्य है। संसारमात्र में जो कुछ वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि हैं वे सब के सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु , व्यक्ति , पदार्थ आदि में जो अपने स्वरूप से कभी चलायमान (विचलित) नहीं होता उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘अचलः’ पद का तात्पर्य है। प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है , परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तनशील संसार में जो क्रियारहित , परिवर्तनरहित , स्थायी स्वभाववाला तत्त्व है । उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘स्थाणुः’ पद का तात्पर्य है। मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे परन्तु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा उस तत्त्व (देही )की तरफ लक्ष्य कराने में ‘सनातनः’ पद का तात्पर्य है।उपर्युक्त पाँचों विशेषणों का तात्पर्य है कि शरीर-संसार के साथ तादात्म्य होने पर भी और शरीर-शरीरी भाव का अलग-अलग अनुभव न होने पर भी शरीरी नित्य-निरन्तर एकरस , एकरूप रहता है – स्वामी रामसुखदास जी