सांख्ययोग ~ अध्याय दो
01-10 अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
श्रीभगवानुवाच।
कुतस्तवा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥
श्रीभगवान् उवाच-परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहा; कुत:-कहाँ से; त्वा-तुमको; कश्मलम् मोह -अज्ञान; इदम्-यह; विषमे – इस संकटकाल में; समुपस्थितम्-उत्पन्न हुआ; अनार्य-अशिष्ट जन; जुष्टम् -आचरण योग्य; अस्वर्ग्यम -उच्च लोकों की ओर न ले जाने वाला; अकीर्तिकरम्-अपयश का कारण; अर्जुन-अर्जुन।
परमात्मा श्रीकृष्ण ने कहाः मेरे प्रिय अर्जुन! इस संकट की घड़ी में तुम्हारे भीतर यह विमोह कैसे उत्पन्न हुआ? यह सम्माननीय लोगों के अनुकूल नहीं है। इससे उच्च लोकों की प्राप्ति नहीं होती अपितु अपयश प्राप्त होता है।।2.2।।
‘अर्जुन’ यह सम्बोधन देने का तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ , निर्मल अन्तःकरण वाले हो। अतः तुम्हारे स्वभाव में कालुष्य , कायरता का आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारे में कैसे आ गयी ? – ‘कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्’ । भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुन से कहते हैं कि ऐसे युद्ध के मौके पर तो तुम्हारे में शूरवीरता , उत्साह आना चाहिये था पर इस बेमौके पर तुम्हारे में यह कायरता कहाँ से आ गयी ? आश्चर्य दो तरह से होता है – अपने न जानने के कारण और दूसरे को चेताने के लिए। भगवान का यहाँ जो आश्चर्यपूर्वक बोलना है वह केवल अर्जुन को चेताने के लिये ही है जिससे अर्जुन का ध्यान अपने कर्तव्य पर चला जाय। ‘कुतः’ कहने का तात्पर्य यह है कि मूल में यह कायरतारूपी दोष तुम्हारे में (स्वयं में) नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है जो सदा रहने वाला नहीं है। ‘समुपस्थितम्’ कहने का तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावों में और वचनों में ही नहीं आयी है किन्तु तुम्हारी क्रियाओं में भी आ गयी है। यह तुम्हारे पर अच्छी तरह से छा गयी है जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथ के मध्यभाग में बैठ गये हो। ‘अनार्यजुष्टम्’ (टिप्पणी प0 38.2) समझदार , श्रेष्ठ मनुष्यों में जो भाव पैदा होते हैं वे अपने कल्याण के उद्देश्य को लेकर ही होते हैं। इसलिये श्लोक के उत्तरार्ध में भगवान सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारे में जो कायरता आयी है उस कायरता को श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरता में अपने कल्याण की बात बिलकुल नहीं है। कल्याण चाहने वाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में अपने कल्याण का ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्य के प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थिति के अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है उसको वे कल्याणप्राप्ति के उद्देश्य से उत्साह और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग करते हैं। वे तुम्हारे जैसे कायर होकर युद्ध से या अन्य किसी कर्तव्यकर्म से उपरत नहीं होते। अतः युद्धरूप से प्राप्त कर्तव्यकर्म से उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है। ‘अस्वर्ग्यम्’ कल्याण की बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टि से भी देखा जाय तो संसार में स्वर्गलोग ऊँचा है परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्ग को देने वाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्ध से निवृत्त होने का फल स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं हो सकता। ‘अकीर्तिकरम् ‘ – अगर स्वर्गप्राप्ति का भी लक्ष्य न हो तो अच्छा माना जाने वाला पुरुष वही काम करता है जिससे संसार में कीर्ति हो। परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है यह इस लोक में भी कीर्ति (यश) देने वाली नहीं है बल्कि अपकीर्ति (अपयश) देने वाली है। अतः तुम्हारे में कायरता का आना सर्वथा ही अनुचित है। भगवान ने यहाँ ‘अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम्’ और ‘अकीर्तिकरम्’ ऐसा क्रम देकर तीन प्रकार के मनुष्य बताये हैं (1) जो विचारशील मनुष्य होते हैं वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय , उद्देश्य केवल कल्याण का ही होता है। (2) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं वे शुभकर्मों के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्ति का ही उद्देश्य रखते हैं। (3) जो साधारण मनुष्य होते हैं वे संसार को ही आदर देते हैं। इसलिये वे संसार में अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्ति को ही अपना ध्येय मानते हैं। उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान अर्जुन को सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करने का निश्चय है – यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्यों के ध्येय , कल्याण और स्वर्ग को प्राप्त कराने वाला भी नहीं है तथा साधारण मनुष्यों के ध्येय , कीर्ति को प्राप्त कराने वाला भी नहीं है। अतः मोह के कारण तुम्हारा युद्ध न करने का निश्चय बहुत ही तुच्छ है जो कि तुम्हारा पतन करने वाला , तुम्हें नरकों में ले जाने वाला और तुम्हारी अपकीर्ति करने वाला होगा। कायरता आने के बाद अब क्या करें इस जिज्ञासा को दूर करने के लिये भगवान कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी