The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.30॥

 

देही–शरीर में निवास करने वाली जीवात्मा; नित्यम्-सदैव; अवध्यः-अविनाशी, जिसका वध नहीं किया जा सके; अयम्- यह आत्मा; देहै-शरीर में; सर्वस्य–प्रत्येक; भारत-भरतवंशी अर्जुन; तस्मात्-इसलिए; सर्वाणि-समस्त; भूतानि-जीवित प्राणी; न-नहीं; त्वम्-तुम; शोचितुम्–शोक करना; अर्हसि-चाहिए।

 

हे अर्जुन! शरीर में निवास करने वाली आत्मा अविनाशी है इसलिए तुम्हें समस्त प्राणियों के लिए शोक नहीं करना चाहिए॥2.30॥

 

 ‘देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत’ – मनुष्य , देवता , पशु , पक्षी , कीट , पतंग आदि स्थावरजङ्गम् सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों में यह देही नित्य ‘अवध्य’ अर्थात् अविनाशी है। ‘अवध्यः’ शब्द के दो अर्थ होते हैं (1) इसका वध नहीं करना चाहिये और (2) इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात् कभी किसी भी अवस्था में गाय को नहीं मारना चाहिये क्योंकि गाय को मारने में बड़ा भारी दोष है , पाप है परन्तु देही के विषय में देही का वध नहीं करना चाहिये – ऐसी बात नहीं है बल्कि इस देही का वध (नाश) कभी किसी भी तरह से हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता – ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’  (2। 17)। ‘तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि’ – इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणी के लिये शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि इस देही का विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। यहाँ  ‘सर्वाणि भूतानि’ पदों में बहुवचन देने का आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये शोक नहीं करना चाहिये। शरीर विनाशी ही है क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है परन्तु जो अपना नित्यस्वरूप है उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविक को जान लिया जाय तो फिर शोक होना सम्भव ही नहीं है। प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात – यहाँ 11वें श्लोक से 30वें श्लोक तक का जो प्रकरण है यह विशेष रूप से देही देह नित्य – अनित्य , सत – असत , अविनाशी-विनाशी – इन दोनों के विवेक के लिये अर्थात् इन दोनों को अलग-अलग बताने के लिये ही है। कारण कि जब तक देही अलग है और देह अलग है – यह विवेक नहीं होगा तब तक कर्मयोग , ज्ञानयोग , भक्तियोग आदि कोई सा भी योग अनुष्ठान में नहीं आयेगा। इतना ही नहीं स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति के लिये भी देही-देह के भेद को समझना आवश्यक है। कारण कि देह से अलग देही न हो तो देह के मरने पर स्वर्ग कौन जायगा ? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं वे चाहे अद्वैतवादी हों चाहे द्वैतवादी हों किसी भी म तके क्यो न हों , सभी शरीरी-शरीर के भेद को मानते ही हैं। यहाँ भगवान इसी भेद को स्पष्ट करना चाहते हैं। इस प्रकरण में भगवान ने जो बात कही है वह प्रायः सम्पूर्ण मनुष्योंके अनुभवकी बात है। जैसे देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देह के बदलने को कौन जानता ? पहले बाल्यावस्था थी फिर जवानी आयी , कभी बीमारी आयी कभी बीमारी चली गयी । इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं पर इन सभी अवस्थाओं को जानने वाला देही वही रहता है। अतः बदलने वाला और न बदलने वाला – ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिये भगवान ने इस प्रकरण में आत्मा-अनात्मा , ब्रह्म-जीव , प्रकृति-पुरुष , जड-चेतन , माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है  (टिप्पणी प0 71.1) । कारण कि लोगों ने दार्शनिक बातें केवल सीखने के लिये मान रखी हैं उन बातों को केवल पढ़ाई का विषय मान रखा है। इसको दृष्टि में रखकर भगवान ने इस प्रकरण में दार्शनिक शब्दों का प्रयोग न करके देह-देही , शरीर-शरीरी , असत – सत , विनाशी-अविनाशी शब्दों का ही प्रयोग किया है। जो इन दोनों के भेद को ठीक-ठीक जान लेता है उसको कभी किञ्चिन्मात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं उनका शोक दूर नहीं होता। एक छहों दर्शनों की पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है। पढ़ाई में ब्रह्म , ईश्वर , जीव , प्रकृति और संसार ये सभी ज्ञान के विषय होते हैं अर्थात् पढ़ाई करने वाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म , ईश्वर आदि इन्द्रियों और अन्तःकरण के विषय होते हैं। पढ़ाई करने वाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है विद्या का संग्रह करना चाहता है पर जो साधक , मुमुक्षु , जिज्ञासु और भक्त होता है – वह अनुभव करना चाहता है अर्थात् प्रकृति और संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करके और अपने आपको जानकर ब्रह्म के साथ अभिन्नता का अनुभव करना चाहता है , ईश्वर के शरण होना चाहता है। अर्जुन के मन में कुटुम्बियों के मरने का शोक था और गुरुजनों को मारने के पाप का भय था अर्थात् यहाँ कुटुम्बियों का वियोग हो जायेगा तो उनके अभाव में दुःख पाना पड़ेगा । यह शोक था और परलोक में पाप के कारण नरक आदि का दुःख भोगना पड़ेगा – यह भय था। अतः भगवान ने अर्जुन का शोक दूर करने के लिये 11वें से 30वें श्लोक तक का प्रकरण कहा और अब अर्जुन का भय दूर करने के लिये क्षात्रधर्मविषयक आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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